‘Mere Flat Ka Darwaza Udaas Hai’, a poem by Usha Dashora

वो अट्टालिका
जो अंगद की तरह
पैर जमाकर खड़ी है
शहर के यकृत पर

उसी में अभी-अभी मेरा घर
फ़्लैट बना है
जिसके दरवाज़े की
आँगन से कोई नातेदारी नहीं है

उबासी लेती दूध की थैलियाँ
उनींदे पानी के केम्पर रोज़ सुबह
निर्जीवता को काँधे पर धरे
उसके कार्नर पर धमक बैठते हैं

मेरा फ़्लैट का दरवाज़ा अभी कुछ सप्ताह पहले
अंग्रेज़ी स्कूल में आए
नए क़स्बाई बच्चे की तरह
ताकता है ब्रॉन्डेड बैगों की ओर
दोस्ती के लिए

पर एटीट्यूट की भोंहे
उसके क़दमों को गोंद से चिपका देती हैं

अब मेरे फ़्लैट का दरवाज़ा
पड़ोस से
एक कटोरी सब्जी का लेना-देना
दो हरी मिर्च, एक कप दूध
और नून-चीनी का वैपार
नहीं देख पाएगा

घर के आँगन में लगे
चंदोवे में
ब्याह के गँवई गीत
ये नहीं सुन पाएगा

और साड़ी को पैरों के बीच
खोंसकर बैठी बूढ़ी औरतों के
निंदा पुराण का सुख
ये नहीं भोग पाएगा

मेरे फ़्लैट का दरवाज़ा
आजकल उदास है
उतना ही उदास है
जितना
पुरानी पैंट से सिला कपड़े का थैला
पत्थर का सिलबट्टा
अचार की बर्नियाँ
अटाले में पड़े पीतल के बर्तन
छत पर पड़ी निवार वाली खाट
पका बाल
हजारों झुर्रियाँ
और पच्चतर साल वाली खाँसी।

यह भी पढ़ें:

वंदना कपिल की कविता ‘दरवाज़े पर रात खड़ी है’
विशाल सिंह की नज़्म ‘इक कमरा’

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