कविता संग्रह ‘दो चट्टानें’ से
बन्द कर अलार्म,
अपने डबल बेड में, खाँस करके,
‘वा गुरू की फ़तह’, ‘जय सियाराम’ कहकर,
हम मियाँ-बीवी गए हैं बैठ उठकर।
और चा’ के लिए राधेश्याम को आवाज़ देकर,
एक लम्बी जम्भाई ले,
इस तरह कहने लगा हूँ मैं:
“तेज, मैंने रात को यह स्वप्न देखा है
कि जैसे मर गया हूँ।”
“सुबह होते ही चलाते बात कैसी!
मुझे अच्छी नहीं लगती।”
“सुनोगी भी, बड़े लोगों ने कही है,
स्वप्न मरने का दिखायी दे अगर
तो उम्र बढ़ती।”
“तो सुनाएँ, क्या हुआ फिर?”
“फिर हुआ यह
बहुत-से घन-बनों,
ऊँचे पर्वतों को पार करता
स्वर्ग पहुँचा-
स्वर्ग था संसार ही-सा-
पास ही में कर्म-लेखालय बना था,
ले गया कोई वहाँ पर
फ़ाइलों की थीं लगी ऐसी क़तारें
आदि उनका, अन्त उनका था न मिलता।
क्लर्क भी थे, पर अँगरखे
पगड़ियाँ धारण किए थे।
मुख्य पद पर
चित्रगुप्त
मुकुट, सुनहले वस्त्र पहने
क़लम ले बैठे हुए थे,
और जो भी आ रहा था सामने
यह कह रहा था-
यमाय धर्मराजाय
चित्रगुप्ताय वै नमः!
और मुझको देखकर
पूछा उन्होंने,
‘प्राप्त कर चोला मनुज का
काम सबसे बड़ा तुमने
क्या किया है?’
कभी तो मैं सोचता
कह दूँ कि ‘मधुशाला’ लिखी है,
कभी उनके दूत का रुख़ देखकर मैं सोचता
कह दूँ कि ‘जनगीता’ बनायी..
और भी बातें बहुत-सी उठीं मन में,
प्यार की, सम्वेदना की,
और यत्किंचित किए उपकार की भी,
किन्तु मैंने अन्त में
जो कुछ कहा वह अजब ही था-
‘एक पति-पत्नी बहुत दिन से अलग थे;
एक उनको किया मैंने।’
चित्रगुप्त प्रसन्न होकर मुस्कराए
और बोले,
‘अभी जाओ,
और भी उनको मिलाओ,
मेल उनमें और भी पक्का कराओ।’
बज उठा अलार्म इस पर- खुली आँखें-
स्वप्न का मतलब बताओ!”