‘Meri Kavita Mein’, a poem by Nirmal Gupt
मैं अपनी कविता में
कभी किसी को नहीं बुलाता,
मेरी कविता में
कोई सायास नहीं आता
इसमें जिसे आना होता है
वह आ ही जाता है
अनामंत्रित,
जैसे कोई मुसाफ़िर आ बैठे
किसी पेड़ के नीचे
उसके तने से टिककर
बेमक़सद, लगभग यूँ ही
बैठा रहे देर तक
अपनी ख़ामोशी को कहता-सुनाता
मेरी कविता में
डरे हुए परिंदों और
मायूस बहेलियों के लिए
कोई जगह ही नहीं है,
पर अँधेरे में दिशा भूला
हर कोई यहाँ आकर
बना लेता है अपना बसेरा
मेरी कविता में
किसी की कोई शिकायत
आद्र पुकार या चीत्कार
या मनुहार कभी दर्ज नहीं होती,
इसके ज़रिये वशीकरण का
कोई काला जादू भी नहीं चलता,
यह किसी को कुछ नहीं देती
न कुछ माँगती है
लेन-देन इसे नहीं आता
मेरी कविता में
कुटिल मसखरे अपनी ढपली,
अपना राग लेकर नहीं आते,
न छद्म वीरता का परचम लहराते
योद्धाओं के लिए इसमें जगह है,
इसमें कोई मस्त मलंग
अपनी धुन में गाता गुनगुनाता
जब चाहे तब आ सकता है
मेरी कविता में
इतिहास में रखे
नृशंस राजाओं के ताबूतों को
सजाने के लिए जगह नहीं,
अनाम फ़क़ीरों की
गुमशुदा आवाज़ों को सुनने के लिए
इसके कान तरसते रहते हैं
मेरी कविता में
ऐसा बहुत कुछ है
जो है परम्परागत समझ से बाहर
पर ऐसे सच के आसपास
जिसे स्वीकारने में
समय के सरपट भागते घोड़े
अक्सर ठिठक जाते हैं
कोई माने या न माने
मेरी कविता और मेरी ज़िन्दगी में
बित्ते भर का भी फ़र्क़ नहीं है!
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