अर्द्धरात्रि के स्वप्न में देखना पुत्रवधु को
भविष्य की एक सुंदर कल्पना का
आश्चर्यकारी रूप था,
मैं हैरान थी उसकी सूरत पर
कुछ हद तक सीरत पर भी
क्या वह मेरा ही प्रतिरूप था?

क्षण-भर के लिए पाया मन को
अप्रत्याशित भय से काँपता,
क्या पाएगी वह भी कोई चरवाहा
जो रहेगा उसे हाँकता?

मैंने झट बदली अपनी कल्पना की वह कुरूप छवि
अगले क्षण जीवंत हुई फिर कोई अखंडनीय प्रति

क्योंकि
नहीं चाहती हूँ
एक और पुत्री को होते देखना बड़ा
पराया मानकर,
वह रहेगी ‘निज’ घर में
स्व-अस्तित्व को पहचानकर

मैंने देखी सपने में
सपनों के पीछे भागती
ख़्वाहिशें पहचानती
मेहनतकश पुत्रवधु,
जिसकी फ़िक्र में सिर्फ़
रोटी गोल नहीं
ज़ेवर अनमोल नहीं
बैंक बैलेंस पति का
जो ना समझे पुरु

मैंने देखा अपने पुत्र को
बच्चे सम्भालते
कपड़े खंगालते
गृहस्थी में निपुण,
जो साथी हो पत्नी का
अधिकारी नहीं
दुराचारी नहीं
न हो उसमें पितृसत्ता का दुर्गुण

भविष्य के क्षितिज पर वह दमकता स्वप्न-स्वरूप था,
परस्व को नकारती उस पुत्रवधु का
वह सुंदरतम परिरूप था।

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