‘Metro Mein Wah Stree’, a poem by Amit Pamasi

मेट्रो में
अक्सर दिख जाती है
वह स्त्री
ऑफ़िस से लौटते समय

शायद भीड़ की वजह से
लेडीज़ डिब्बे की तरफ़ रुख़ नहीं करती
या शायद
एस्केलेटर के पास आख़िरी डिब्बा
जो आकर रुकता है

मैं तो आख़िरी डिब्बे का रुख़
इसलिए करता हूँ
कि कम से कम ठीक से खड़े होने को तो मिल जाए,
वैसे भी लौटते समय
भीड़ अपेक्षाकृत ज़्यादा होती है
सबको घर पहुँचने की जल्दी होती है

पर वह स्त्री इन सबसे बेख़बर
अपने कानों में इयरफ़ोन लगाये
फ़ोन में उलझे पड़ी है,
हो सकता है
उसका कोई प्रेमी हो
जिससे वह चैटिंग में बिज़ी हो
या फिर अपने करियर को लेकर
कोई योजना बनाने में व्यस्त

लगता नहीं
कि घर जाने की किसी हड़बड़ाहट में है वह,
आयु भी इतनी नहीं
कि पति या बच्चे उसके इंतज़ार में हों,
वह तो
पूरी तल्लीनता से
जी लेना चाहती है
फ़ोन में ही
अपनी पूरी ज़िन्दगी।

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अमित पमासी
पेशे से प्रशासनिक अधिकारी. फिलहाल दिल्ली में कार्यरत. कविता और कहानी लेखन से जुड़ाव. हाशिये पर पड़े अनदेखे समाज के लेखन में विशेष रुचि. संपर्क कर सकते हैं [email protected]

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