“लहुरे! क्या है ये? क्या कर रहा है? खिड़की पर झुकी सिट्टो ने अपने पीछे हुई हलचल पर प्रतिक्रया दी, तो पड़ोस के घन्नू ने उसे कई चिकोटियाँ फिर से काटते हुए कहा, “प्यार है।”
सिट्टो तटस्थ हो गई, “नहीं चहिए।”
“कब तक राह तकेगी उसका, बिक्कू नहीं आएगा अब अपनी नई दुनिया से।” घन्नू ने निवेदन का अगला सूत्र प्रयोग किया।
सिट्टो खिड़की से बाहर जमीन को घूरते हुए बोली, “ना आए मेरी बला से। मुझे तो पानी से प्रेम हो गया है। किसी दिन जब जोर का मेघ बरसेगा तब झरने के नीचे खड़ी हो जाऊँगी; आकाश का पानी, झरने का पानी और नदी का पानी, हर ओर पानी। फिर इतना पानी पी लूँगी कि मैं भी गल कर पानी हो जाऊँगी।”
“तेरा दिमाग सटक गया है।” अपनी असफलता से भन्नाया घन्नू वहाँ से चला गया।
सचमुच एक दिन वर्षा के बाद नदी के पानी पर सिट्टो की मुस्कुराती हुई देह उतरा रही थी।