आत्मा अमर और मिट्टी नश्वर
यह बिना देखे का दर्शन बिल्कुल झूठा है!

आत्मा की अमरता कब, किसने देखी!
मिट्टी को, किन्तु, सदैव हमने देखा।
मिट्टी में मानवता का दर्शन देखा…
जीवन, मिट्टी की पैदाइश से पोषित
विभव, मिट्टी के महलों में मुखरित
धर्म, मिट्टी की मूरत में पूजित
सत्य, मिट्टी के उर की पीड़ा में संचित
मृत्यु, मिट्टी के अपमानों से कुण्ठित!

मिट्टी सब-कुछ, मिट्टी अमर
विलय नहीं उसका होते देखा
मिटी हुई मिट्टी को फिर से रूपायित होते देखा
युग-पद-चापों की मिट्टी से इतिहासों को मिटते देखा
पर धरती को हँसते-हँसते अचला देखा!

संघर्ष, तूफ़ान, प्रलयंकारिणी विभीषिका से
सब-कुछ मिट्टी में मिलते देखा, (पर)
मिट्टी के बल पर मानव को जीते देखा।

जो कुछ है, मिट्टी का है
सबकी जड़ मिट्टी में है।
मिट्टी के वरदानों में निर्माण खड़ा है
मिट्टी के उर की पीड़ा में संहार छिपा है!
मिट्टी ही बुनियाद
महल और मीनारों की
मन्दिर और मस्जिद की
और मानव की मानवता की।

जो पैर नहीं रखते मिट्टी पर,
उनकी मानवता में संशय है!

मिट्टी का होकर जो मिट्टी के साथ नहीं,
मिट्टी का विप्लव उसको ललकार रहा,
मिट्टी का दर्शन युग-परिवर्तन को देख रहा,
मिट्टी की जय, मिट्टी के गीत नयी राह पर दौड़ रहे!

साभार: किताब: एक और पहचान | सम्पादन: प्रभा खेतान | प्रकाशक: स्वर समवेत

रूपम मिश्रा की कविता 'हम माँ के बनाए मिट्टी के खिलौने थे'
भँवरमल सिंघी
जन्म: 9 अगस्त, 1914 जोधपुर, राजस्थान