जीवन उतना ही जिया
जितना मृत्यु नींद में विश्राम करती है।
नींद के बाहर
एक विशाल मरुथल है
लोग कहते हैं—
मरुथल के पार कोई ईश्वर रहता है
मैं अनवरत चला और पाया
यात्री के थककर चूर हो जाने के बाद ही
यात्रा आरम्भ होती है।
मैं जिस ईश्वर को ढूँढने निकला था
वो स्वयं मुझे ढूँढते-ढूँढते मर गया।
मैं जहाँ पहुँचना चाहता था
वहाँ कुछ भी नहीं था
न स्मृति
न रंग
न गंध
न देह
कुछ भी नहीं।