‘Mrityu Meri Priyatama’, a poem by Kritikawadhoot

तुम्हारा प्रेम द्रोण-कृत व्यूह था और

मैं तुम्हारे प्रेम में अभिमन्यु था।

मैनें गर्भ में ही सीखा था
प्रेम-व्यूह को भेदने का तरीक़ा।
पर अभिमन्यु की तरह ही
मैं भी अनभिज्ञ था चक्रव्यूह से निकलने में।

जीता, सभी से इस समराग्नि अपनी में स्नेह की कटार से,
हाँ! मैं दुर्जय हूँ।
मैं नहीं मरा तुम्हारी आँखों के कृपाण से।
तुम्हारे दृग-पारावार को भी निस्तार किया,
मैंने धीरज के सहारे।
वासनाओं को भी मैंने क्षत-विक्षत कर दिया था,
अपनी संयम की तलवार से।
ना ही मुझे मेरे पथ से विचलित कर सकीं तुम्हारी,
काया की मायावी ताक़तें।
तुम्हारे न आने के प्रण को भी ख़ुद से दूर रखा,
अपनी धैर्य की ढाल से।

और अंततः मैंने ख़ुद को घिरा पाया
तुम्हारे अधर-रूपी कोदंड से मेरी तरफ साधी गयी वाणी से
हथियार डाल दिये थे मैंने,
लगभग हारा ही था मैं।

विधान स्वरूप इस चक्रव्यूह में भी अभिमन्यु का
मरना ही अंतिम सत्य था।

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