कुछ कवि होते हैं जो मुग्ध होते हैं। उनकी निगाह हमेशा जीवन के कुछ उजले पक्षों और उजली चीज़ों की ओर ही उठती है। जीवन और सृष्टि के सौन्दर्य की जीवन्तता के प्रति उनमें एक उत्सव-सा भाव होता है। वे सिर्फ़ सौन्दर्य को देखते हैं और उसे अपनी कविता में दर्ज करते हैं। यह दर्ज करना एक स्तर पर जो सुन्दर है, अच्छा है, मानवीय है को बचाना है। सहेजना है। इस तरह चीज़ों को अवेरने का भाव स्त्रियों में अधिक होता है। इस तरह के कवियों की कविता में आलोचनात्मक तेवर कम होता है या एक तरह से उससे कतराने की कोशिश इनमें दिख सकती है। उनकी कविता में कहीं-कहीं ग़ुस्सा दिख सकता है। यह ग़ुस्सा वस्तुतः सुन्दर को नष्ट किए जाने से उपजी पीड़ा है। हिन्दी कविता में इस मुग्ध भाव को कभी ठीक-ठीक व्याख्यायित नहीं किया गया। बल्कि इस भाव को कुछ हेय दृष्टि से देखा जाता रहा है। सुमित्रानन्दन पन्त और चन्द्रकुँवर बर्थवाल के बाद यह भाव अपनी पूरी सघनता में शमशेर और केदारनाथ सिंह में अपने-अपने ढंग से दिखता है। आलोकधन्वा की कविता के सबसे सुन्दर हिस्से वे हैं जहाँ वे जीवन और सृष्टि के सौन्दर्य के प्रति मुग्ध हैं। मुग्ध कवि की ऐन्द्रिकता किसी अन्य कवि की ऐन्द्रिकता से कुछ भिन्न होगी। मुग्ध कवि अपनी ऐन्द्रिकता से सृष्टि का उत्सव रचता है। आलोकधन्वा की कविता में मुग्धता और उल्लास का यह भाव मनुष्य के श्रम सौन्दर्य को देखने तक विस्तार पाता है। यह लगभग वह भाव है जो ‘तोड़ती पत्थर’ में निराला में दिखता है। आलोकधन्वा की उँगलियाँ इसे थोड़ी कोमलता से छूती हैं।

कभी-कभी लगता है कि मुग्धता, रचना को जीवन की आलोचना माननेवाली अवधारणा से मेल नहीं खाती। उसकी पटरी कुछ भक्तिकाल से और कुछ-कुछ छायावाद से बैठ सकती है। इन दोनों ही आन्दोलनों में ‘रमने’ का जो भाव बार-बार दिखता है, वही या लगभग उसी बिरादरी की मुग्धता समकालीन कविता के मुग्ध कवियों में भी दिखती है। ऐसी रचना को अक्सर ‘गुडी-गुडी’ कहकर उसकी कुछ अवहेलना-सी की जाती रही है। यह अजीब विरोधाभास-सा मुझे लगता है। एक ओर हम जीवन को सुन्दर बनाने और उसकी सन्दरता को सहेजना चाहते हैं पर कविता जब यही काम करती है तो उसे स्वीकार करने में हम अक्सर कृपण होते हैं। हम ऐसी कविता को आलोचनात्मक विवेक की या संघर्ष की कविता की पाँत में नहीं रखते या रखने से बचते हैं।

कभी-कभी तो मुझे यह भी लगता है कि मनुष्य के दुखों और यातनाओं से एक औसत प्रभाव पैदा करनेवाली कविता बनाना कुछ हद तक आसान है लेकिन जीवन और सृष्टि में जो सुन्दर है, उसे दर्ज करते हुए, पूरे मन से उसे, उसके उल्लास और उत्सव को दर्ज करते हुए एक अच्छी कविता रच पाना ज़्यादा मुश्किल काम है।

ऐसी कविता अपने पाठक से एक हद तक सब्जेक्टिव होने की भी माँग करती है… शायद।

राजेश जोशी की कविता 'हर जगह आकाश'

Book by Rajesh Joshi:

राजेश जोशी
राजेश जोशी (जन्म १९४६) साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हिन्दी साहित्यकार हैं। राजेश जोशी ने कविताओं के अलावा कहानियाँ, नाटक, लेख और टिप्पणियाँ भी लिखीं। साथ ही उन्होंने कुछ नाट्य रूपांतर तथा कुछ लघु फिल्मों के लिए पटकथा लेखन का कार्य भी किया। उनके द्वारा भतृहरि की कविताओं की अनुरचना भूमिका "कल्पतरू यह भी" एवं मायकोवस्की की कविता का अनुवाद "पतलून पहिना बादल" नाम से किए गए है। कई भारतीय भाषाओं के साथ-साथ अँग्रेजी, रूसी और जर्मन में भी उनकी कविताओं के अनुवाद प्रकाशित हुए हैं। राजेश जोशी के चार कविता-संग्रह- एक दिन बोलेंगे पेड़, मिट्टी का चेहरा, नेपथ्य में हँसी और दो पंक्तियों के बीच, दो कहानी संग्रह - सोमवार और अन्य कहानियाँ, कपिल का पेड़, तीन नाटक - जादू जंगल, अच्छे आदमी, टंकारा का गाना।