आज के समय में
एक चेहरे का होना
किसी के भी पास
अपवाद सा है।

सुना है मैनें कि पहले
हुआ करते थे
सभी के पास
एक-एक ही चेहरे,
पर अब वक्त की तेज़ रफ़्तार,
और इंसान की चतुराई,
लिप्सा, कुंठा, बनावट
इन सभी की प्रचुरता के चलते
अब सभी के पास हो गए हैं,
दो या दो से अधिक चेहरे।

चेहरे जिन पर क्रोध,
वासना, कामना का लेप
परत दर परत चढ़ा हुआ है,
जो छिपा रहता है,
पाक, साफ, निर्दोष
और निश्छल,
चेहरे के ठीक पीछे।

वक्त पड़ने पर,
या ज़रा चूक जाने पर,
या सहसा ही
अनुकूल परिस्थितियों की
सुगबुगाहट को भाँपकर,
उभरकर सामने आ ही जाता है,
एक खूंखार, डरावना चेहरा,
जिसकी पहचान करना
लगभग नामुमकिन सा होता है।
क्यूँकि हर एक चेहरा ही,
दिखना चाहता है,
मासूम, दयावान और
परोपकार के लावण्य में डुबोया हुआ।

मैंनें देखा है
कई बार
लोगों को
मुखौटे बदलते हुए।
सामने कुछ और
पीछे कुछ और ही दिखते हुए
दिन में अलग,
रात में अलग,
चेहरे पहनते हुए।

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अनुपमा मिश्रा
My poems have been published in Literary yard, Best Poetry, spillwords, Queen Mob's Teahouse, Rachanakar and others

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