अकेला कवि कठघरा होता है
इससे पहले कि ‘वह’ तुम्हें
सिलसिले से काटकर अलग कर दे
कविता पर
बहस शुरू करो
और शहर को अपनी ओर
झुका लो।
यह सबूत के लिए है।
-रंगीन पत्रिकाओं में चरित्र –
पोंकता हुआ ईमान,
जो दाँतों में फँसी हुई भाषा की
तिकड़म है,
-टूटे हुए बकलस का ख़ुफ़िया तनाव,
-एक बातूनी घड़ी,
-वकील का लबार चोंगा,
-एक डरपोक चाकू
जिसका फल क़ानून की ज़द से
सूत-भर कम है

शिनाख़्त की इन तमाम चीज़ों के साथ
अपने लोगों की भीड़ में
भाषा को धीरे से धँसाओ,
बिना किसी घाव के शब्द
बाहर आ जाएँगे
जैसे परखी में बोरे का अनाज
चला आता है।
उन्हें परखो
बाट की जगह अपना चेहरा रख दो।

यह न्याय के लिए है।
क्योंकि जिसमें थोड़ा-सा भी विवेक है;
वह जानता है कि आजकल
शहर कोतवाल की नीयत
और हथकड़ी का नम्बर एक है।
और अब देखो कि काँटे का रुख
किधर है।
कल तक वह उधर था
जिधर आढ़तिया था।
जिधर चुंगी का मुंशी बैठता था
कल तक –
नगरपिता का सिर विरोध में
हिलता था और तुम पाते थे –
कि कविता का अर्थ
बदल गया है।
मगर अब चीज़ों के ग़लत होने का
पता चल गया है :
एक रिश्ता ग़लत समय देने लगा है;
उसकी मरम्मत के लिए
घड़ीसाज़ की दुकान पर जाना
सरासर भूल है।

तुम्हारे जिगरी दोस्त की कमर
वक़्त से पहले ही झुक गयी है
उसके लिए –
बढ़ई के आरी और बसूले से
लड़ना फ़िज़ूल है।
क्योंकि ग़लत होने की जड़
न घड़ीसाज़ की दुकान में है,
न बढ़ई के बसूले में
और न आरी में है
बल्कि वह इस समझदारी में है
कि वित्तमन्त्री की ऐनक का
कौन-सा शीशा कितना मोटा है;
और विपक्ष की बेंच पर बैठे हुए
नेता के भाइयों के नाम
सस्ते गल्ले की कितनी दुकानों का
कोटा है।

और जो चरित्रहीन है
उसकी रसोई में पकनेवाला चावल
कितना महीन है।
इस वक़्त सचाई को जानना
विरोध में होना है।
और यहीं से –
अपराधियों की नाक के ठीक नीचे
कविता पर
बहस शुरू होती है।
चेहरे से चेहरा बटोरते हुए
एक तीखा स्वर
सवाल पर सवाल करता है
सन्नाटा टूटता है।
गूँगे के मुँह से उत्तर फूटता है।
“कविता क्या है?
कोई पहनावा है?
कुर्ता-पाजामा है?”
“ना, भाई, ना,
कविता –
शब्दों की अदालत में
मुजरिम के कटघरे में खड़े बेक़सूर आदमी का
हलफ़नामा है।”
“क्या यह व्यक्तित्व बनाने की –
चरित्र चमकाने की –
खाने-कमाने की –
चीज़ है?”
“ना, भाई, ना,
कविता
भाषा में
आदमी होने की तमीज़ है।”

इस तरह सवाल और जवाब की मंज़िलें –
तय करके
थका-हारा सच –
एक दिन अपने खोये हुए चेहरे में
वापस आता है,
और अचानक, एक नदारद-सा आदमी
समूचे शहर की ज़ुबान बन जाता है।

लेकिन मैंने कहा –
अकेला कवि कठघरा होता है।
साथ ही, मुझे डर है कि ‘वह’ आदमी
तुम्हें सिलसिले से काटकर
अलग कर देने पर तुला है;
जो आदमी के भेस में
शातिर दरिन्दा है,
जो हाथों और पैरों से पंगु हो चुका है
मगर नाख़ून में ज़िन्दा है,
जिसने विरोध का अक्षर-अक्षर
अपने पक्ष में तोड़ लिया है।
जो जानता है कि अकेला आदमी झूठ होता है।
जिसके मन में पाप छाया हुआ है।
जो आज अघाया हुआ है,
और कल भी –
जिसकी रोटी सुरक्षित है।
‘वह’ तुम्हें अकेला कर देने पर
तुला है।
वक़्त बहुत कम है।
इसलिए कविता पर बहस
शुरू करो
और शहर को अपनी ओर झुका लो
क्योंकि असली अपराधी का
नामा लेने के लिए,
कविता, सिर्फ़ उतनी ही देर तक सुरक्षित है
जितनी देर, कीमा होने से पहले
कसाई के ठीहे और तनी हुई गँड़ास के बीच
बोटी सुरक्षित है।

सुदामा पाण्डेय 'धूमिल'
सुदामा पाण्डेय धूमिल हिंदी की समकालीन कविता के दौर के मील के पत्थर सरीखे कवियों में एक है। उनकी कविताओं में आजादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है। व्यवस्था जिसने जनता को छला है, उसको आइना दिखाना मानों धूमिल की कविताओं का परम लक्ष्य है।