आज वह शहर की उस गली में गया
जहाँ जाने से लोग अक्सर कतराते हैं
पान की गुमटी में बैठी एक बुढ़िया
पढ़ रही है उर्दू की कोई किताब
उसके मुँह से निकलने वाले हरफ़
दौड़े जा रहे हैं इबादत के घोड़े पर सवार होकर
मस्जिद के पास एक चबूतरा है
वहाँ बतिया रहे हैं बुज़ुर्ग लोग
चुग रहे हैं पखेरू दाना
जैसे सभी मज़हब के ख़ुदा चिलम पीते हुए
धरती, गेहूँ और बाजरे के दानों से बतिया रहे हों
बग़ीचे की ओर तनी तोप की नाल में
अभी-अभी चूजो ने खोली हैं चोंच
छेड़े हैं तोप के विरुद्ध गीत
रहीम चाचा गाय दुहते वक़्त कह रहे
अफ़सोस है कि बरसों-बरस से
राष्ट्रवादी गाय को
दुहा जा रहा है ‘जय’ की पछावट लगाकर
सामने वाली गली में कुछेक औरतें रंग रही हैं ओढ़ने
कुछेक कर रही हैं कढ़ाई
कुछेक बना रही हैं मांडने
कुछेक चुटिया बनाती हुईं
सिखा रही हैं बच्चियों को जीवन की वर्णमाला
जब माँएँ शिशु की हथेलियों-पगथलियों पर
बना रही होती है काजल का चांद
तब दरगाहों से खड़े होकर पीर
धूल झाड़ते हुए
आकर बैठ जाते हैं हथेलियों में
उस वक़्त मुस्कुराती हैं माँएँ
जैसे रह-रहकर मुस्कुरा रहीं हो लोक-कथाएँ
जर्जर पुस्तकालय के पीछे
धड़कता है मुसलमानों की गली में एक समूचा गाँव!
संदीप निर्भय की कविता 'जिस देश में मेरा भोला गाँव है'