‘Mutthi Bhar Jism’, a poem by Dev Rawat Dev

हम गा सकते थे
कुछ युगल गीत,
साथ पढ़ सकते थे
कुछ कविताएँ,
सिखा सकते थे
बच्चों को
पाइथागोरस प्रमेय,
न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण
और कर सकते थे
आकाश के विस्तार-सा प्रेम।
मेरा विश्वास है
कि नहीं मिल सकता धरती पर
इससे भी दुर्लभ कुछ,
पर तुमने पसंद किए
ख़ुद के लिए आधुनिकता के
गिरगिटी सिद्धांत
और परखा प्रेम को
मिथक-भर भौतिक मापदण्डों पर।
तुम आज़ाद हो साथी
मेरे प्रेम की वैतरणी से,
मैं कामना करता हूँ
तुम्हें मिल जाए एक दिन
तुम्हारे दिव्य सपनों का
मुट्ठी-भर जिस्म।

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देव रावत देव
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