न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम न आ सके मैं वह एक मुश्‍तेग़ुबार हूँ

मैं नहीं हूँ नग़मा ए जाँ फ़िज़ा कोई सुन के मेरी करेगा क्‍या
मैं बड़े ही दर्द की हूँ सदा किसी दिल जले की पुकार हूँ

मेरा रंग-रुप बिगड़ गया मेरा हुस्‍न मुझसे बिछ़ड़ गया
चमन खिजाँ से उजड़ गया मैं उसी की फ़सले-बहार हूँ

कोई फ़ातिहा पढ़ने आए क्‍यों कोई चार फूल चढ़ाए क्‍यों
कोई आ के शम्‍मा जलाए क्‍यों कि मैं बेकसी का मज़ार हूँ

न ‘ज़फ़र’ किसी का रक़ीब हूँ न ‘ज़फ़र’ किसी का हबीब हूँ
जो बिगड़ गया वह नसीब हूँ जो उजड़ गया वह दयार हूँ

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बहादुर शाह ज़फ़र
बहादुर शाह ज़फर (1775-1862) भारत में मुग़ल साम्राज्य के आखिरी शहंशाह थे और उर्दू के माने हुए शायर थे। उन्होंने १८५७ का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व किया। युद्ध में हार के बाद अंग्रेजों ने उन्हें बर्मा (अब म्यांमार) भेज दिया जहाँ उनकी मृत्यु हुई।

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