हम जिस भी सर्वोच्च सत्ता के उपासक हैं
इत्तेला कर दें उसे
शीघ्रातिशीघ्र
कि हमारी प्रार्थना और हमारे ईश्वर के मध्य
घुसपैठ कर गए हैं धर्म के बिचौलिए
बेमतलब गूँजों और अनर्गल उपदेशों के साथ,
मेरी नन्ही उँगली जो छू लेती थी तुम्हें
उस नदी को छूकर जो तर करती है
चिड़िया के सूखे कण्ठ को
भटक जाती है अब भीड़ के शोर में

भटकते-भटकते जहाँ पहुँचते हैं मेरे करबद्ध हाथ
वहाँ वास्तुकला का अपूर्व ढाँचा है
नक़्क़ाशी है, भवन है, गौरवमयी इतिहास है
सब कुछ है
लेकिन वहाँ आए दिन चलते हैं असलहे
वहाँ मनुष्यता कहाँ है?
इमारत किसी भी सम्प्रदाय की हो
अफ़सोस, ईश्वर से ख़ाली है!

ईश्वर की असीम सत्ता स्थापित करने की
महत्त्वाकाँक्षी योजना में
वे भूल रहे हैं एक बात
हिंसा से हासिल स्थान से तो
स्वयं ही विस्थापित हो जाएगा ईश्वर
ईश्वर कोई बादशाह नहीं
जिसे तख़्त की चाह हो

डरो, कहीं कूच न कर जाए
हर उस इमारत से भरोसे नाम का ईश्वर
जिस पर किसी ख़ास रंग का झंडा लगा है

ईश के सच्चे उपासकों
यदि चलता रहा यूँ ही सब कुछ
तो एक दिन
तुम्हें देना होगा
अपने ईश्वर को ज़ेहन निकाला
या फिर स्वीकार करना होगा देश निकाला
अपने उस नदी सरीखे
कोमल ईश्वर की रक्षा हेतु।

शमशेर बहादुर सिंह की कविता 'ईश्वर अगर मैंने अरबी में प्रार्थना की'

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