मैं जग रहा हूँ
आँखों में गाढ़ी-चिपचिपी नींद भरे
कि नींद मेरे विकल्पों की सूची में खो गयी है कहीं।

जिस बिस्तर पर मैं लेटा
चाहे-अनचाहे मेरी उपस्थिति का गवाह बनकर छूट गईं कुछ सलवटें
छूटी हुई उन सलवटों में निवेश था मेरे अस्तित्व का।

वह बीते दिनों की बात है
जब मैं स्वप्न में तुमसे मिलने आता था,
तुम अक्सर नदी किनारे एक छोटा-सा घर बनाने का ख़्वाब बुनती थीं।
जब आख़िरी बार मिले थे वहाँ
तो तुम्हारे पाँवों में चोट थी
तुम्हारे रक्त की बूँदें मेरे स्वप्न पर गिरी थीं,
अगले रोज़ जब मलहम लेकर आया
तो तुम नहीं मिली थीं उस पते पर।

एक सरहद आकर लेट गयी थी तकियों के बीच
लेकिन सरहदों को मैंने नींद की चादर नहीं बनने दिया—
विकल्पों की सूची से
नींद के विदा हो जाने पर भी
व्यक्ति अपने सपनों से विद्रोह नहीं कर सकता।

अब मैं खुली आँखों में बुनता हूँ स्वप्न,
मैं चेतना की नाव पर सवार चलता हूँ
अक्षरों को पत्तों पर सम्भालकर विसर्जित करता हूँ नदी में,
पत्ता काँपता है नदी की साँस पर
और तलाशता है तुम्हारा पता
कि नींद के बाहर किस किनारे पर घर है तुम्हारा,
कहाँ मिलोगी अब तुम, खुली आँखों के स्वप्न में!

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प्रांजल राय
बैंगलोर में सॉफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में कार्यरत | बिरला प्रौद्योगिकी संस्थान से बी.टेक. | वागर्थ, कथादेश, पाखी, समावर्तन, कथाक्रम, परिकथा, अक्षरपर्व, जनसंदेश-टाइम्स, अभिनव इमरोज़, अनुनाद एवं सम्प्रेषण आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित