‘Nari Ka Nyay’, Hindi Kavita by Supriya Mishra
इस समाज की सतायी औरत
दोष नहीं दे पाती किसी मर्द को,
ना समाज को, ना वक़्त को।
वो झुझती रहती है अपने ही सवालों में
गिनती है अपने ही आँकड़ों को,
दोषती है ख़ुद को।
वो जानती है कि
पृथ्वी की कोई जगह इतनी सुरक्षित नहीं
जहाँ बेटियों के पालने रखे जा सकें।
घर से निकलते वक़्त उसे हर बार
यह बताया गया है कि
ख़ुद को बचाने का एकमात्र तरीक़ा है
ख़ुद को लक्ष्मण रेखा के इस पार रखना।
अपने कपड़ों की लम्बाई नापते हुए
उसे हमेशा ये ख़्याल रहा कि
कृष्ण के चीर से बस ढकी जा सकी थी
द्रौपदी की लाज
कपड़े का कोई टुकड़ा इतना लम्बा नहीं हो पाया
जो बन सके दुर्योधन की फाँसी का फंदा।
रात घर लौटते वक़्त
उसे ये बात याद रहती है
कि कोई रंग इतना काला नहीं
जो इस अँधेरे को ढक सके
कि इस गली की आख़िरी मोमबत्ती
जो जला सकती थी सारा मोहल्ला
किसी के आँसुओं से बुझ गई।
उसके घर के बाहर
हर चेहरा वहशी है,
हर छुअन घिनावन,
हर आवाज़ ऊँची है,
इतनी ऊँची कि वो फिर से देखती है
आईने में अपने चहरे को
ठीक करती है अपने कपड़ों को
आँकती है अपने शब्दों को
गिनती है क़दमों को।
मगर इतनी ऊँची नहीं कि भगा सके उसके डर को।
वो गली में साथ खेल रहे बच्चों को देख
मन ही मन गिनती है
उनमें लड़कियों की संख्या,
अफ़सोस करती हैं घटते आँकड़े पर
फिर कुछ याद कर, सोचती है
‘लड़कियों का बाहर जाना ठीक नहीं’।
अपनी स्कूटी के घूमते पहिए की गति से
अपने कंगन घुमाते हुए,
कभी कृष्ण में सुदर्शन का स्मरण करती है
कभी ऊपर घूमते पंखे का
और सोचती है कि सबको शिव-सा होना चाहिए,
जो यह समझ सके कि
चाहे ब्रह्मा ही क्यों ना हो
ज़रूरी है काट दिया जाना
हर वो पाँचवा सर जो
नज़र बुरी डालता हो किसी भी शत्रुपा पर।
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