शामली को देख कर सुलताना को लकड़ी के उन बेढंगे टुकड़ों का ख़याल आ जाता था जिन को अलग-अलग देखो तो आड़े तिरछे और बेडौल, लेकिन ठीक से मिलाकर बनाओ तो ऐसे नमूने, ऐसी तस्वीरें निकले कि क्या कहने!
उसके नक़्शे में कोई ख़ास बात नहीं थी। रंग भी गहरा साँवला था; लेकिन पहले ही दिन जब सुलताना रिक्शे से उतर कर अपने दरवाज़े में दाखिल हो रही थी और उसने शागिर्द पेशे की एक कोठरी के सामने शामली को बैठे देखा था, तो उसे अहसास हुआ था कि यह चीज़ बार-बार देखने के क़ाबिल है। शामली ने भी सुलताना को देखा, मगर हाथ जोड़ कर नमस्ते करने के बजाये वह नज़रे उठाकर सिर्फ ज़रा सा मुस्कुराई थी, फिर सर झुककर पीतल की चमकती थाली में चावल से धान, कंकड़ बीनने लगी।
उसकी यह अदा सुलताना को भा गई। क्योंकि उसे ख़याल था कि वह अवाम से मोहब्बत करती है और जब किसी ग़रीब को किसी अमीर आदमी के सामने हाथ जोड़ते या उसे माई बाप कहते सुनती तो उसे उस ग़रीब पर बहुत गुस्सा आता; जभी तो उसे शामली पर बेहद प्यार आया था।
बाहरी दरवाज़े से अन्दर आते-आते उसे अपने बचपन की सुनी बहुत सी बातें याद आने लगीं- “नीच ज़ात की औरतों का कुछ ठीक नहीं होता”; दादी और नानी के बताये हुए वाक्यात, “काल से जो छोकरियों खरीदी गई उनको जब रोटियाँ लग गईं तो किसी न किसी के साथ भाग गई”, “उन लोगों को खसम करते या छोड़ते कुछ नहीं लगता”, वगैरह। न जाने शामली कौन थी? अकेली कैसे कोठरी में रह रही थी? सुलताना ने जल्दी से घड़ी उतारी और गुसलखाने में जाकर नहाने के लिए नल खोला- पानी नदारद! भन्नाकर उसने खिड़की खोली, “अरे भई नल बंद करो!” देखा तो शामली नल पर चावल धो रही थी। सुलताना को देखकर जैसे वह समझ गई कि क्या मामला है। नल बंद करते हुए बोली, “बीबी जी हम कल ही यहाँ आये हैं। हमको खबर नहीं थी कि बाहर नल खोलने से अन्दर पानी बंद हो जाता है।”
“कोई बात नहीं!”, सुलताना का सारा गुस्सा हवा हो गया था। शामली की आवाज़ उसे बहुत ही अच्छी लगी थी, बात करने का अंदाज़ भी पसंद आया था।
अगले हफ्ते बाहर वाली कोठी में एक सरकारी दफ्तर किराए पर आ गया। बीच वाला बड़ा हॉल और बड़े कमरे दफ्तर को मिले, छोटे छोटे कमरों के सेटों में उसी दफ्तर के सेक्रेटरी, हेड क्लर्क वगैरह और शागिर्द पेशे की दो तीन कोठरियों के इलावा सब अर्दलियों, चपरासियों, चौकिदारों, सफाई करने वालों से भर गई। शामली की, और एक और कोठरी सुलताना के आउट हाउस के साथ थीं।
तीन चार रोज़ बाद, सुलताना कॉलेज से आकर डाक देख रही थी कि उसने बाहर हंसने की आवाज़ सुनी जो शामली की सी लग रही थी। धीरे से उसने वही गुसलखाने वाली खिड़की खोली। सुलताना की छोटी बच्ची शामली को दौड़ा रही थी। दौड़ते-दौड़ते शामली अपनी कोठरी में घुस गई और चीख-चीख कर बोली, “बस भई हमने हार मान ली ! हमको खाना पकाना है न बेटा! अब कल खेलेंगे।” चारों तरफ शागिर्द पेशे के बहुत-से नौकर वगैरह खड़े हंस रहे थे।
छोटी बच्ची अपने हठ पर अड़ी थी- “हम नहीं जानते, हमारा दाव दो! दो!”
शामली ने हँसते-हँसते किवाड़ खोले और हँसते हुए निकलकर एक दूसरी चाल चली- “आइये आग जलाएं बेटा! आप आटा लेगीं? चिड़िया बनाएंगी? फिर हम उसको आग में सेंक देंगे और आप खूब खेलिएगा मज़े से।”
बच्ची वहीं बैठ गई एक ईंट पर और शामली ने चूल्हे में उपले लकड़ियाँ रखकर फूंक मार-मारकर आग जलानी शुरू कर दी। सुलताना ने खिड़की बंद कर ली। उसे शामली का इस तरह दिल खोलकर मासूमियत से हँसना बहुत अच्छा लगा था, लेकिन… लेकिन अगर वह चपरासी और चौकीदार वहां न खड़े होते तो बहुत अच्छा होता! इतने मर्दों के बीच इस तरह… लेकिन शामली ने तो उनमे से किसी की तरफ देखा तक नहीं था। फिर भी, बेगैरती तो है ही! लेकिन बेगैरती क्यों है? उसने नज़र उठाकर देखा तो शामली सामने खड़ी थी और वह सुलताना से आँखे चार होते ही ऐसे शरमाई कि सुलताना को यकीन नहीं आया कि यह वही शामली है जो कुछ देर पहले ऐसे ठट्टे लगा रही थी, ऐसे हंस रही थी जैसे उसका सारा वजूद पंखुड़िया बनकर बिखर जायेगा। तो क्या वह सुलताना के सामने हँसना नहीं चाहती थी? अहिस्ता से बोली, “बीबी जी, एक दो मिर्च चाहिए। अँधेरा हो गया है न, तो दूकान तक जाते ज़रा वैसा सा लग रहा है।”
“नहीं नहीं, दूकान तक जाने की कोई ज़रूरत नहीं, बैठो, अभी मंगवा देते हैं।” उसने खानसामा को आवाज़ दी और फिर शामली से बातें करने लगी।
शामली बैठ गई और सुलताना के सवालों के जवाब में उसने बताया कि उसका शौहर मर चुका है और वह खुद पास वाली पीली कोठी में, मेजर साहब के बच्चों को खिलाने पर नौकर है। फिर उनके छोटे बच्चे का ज़िक्र करते हुए वह एक आध बार बड़े प्यार से हंसी जिससे मालूम होता था कि उसे बच्चे से बेहद मोहब्बत हो गई है।
खानसामा मिर्च लेकर आया तो उसने नज़र भरकर शामली को देखा, मगर शामली ने उसकी तरफ देखा भी नहीं; मिर्च ली, सुलताना की तरफ मुस्कुराई और चुपचाप चली गई। जब वह बाहर निकल गई तो खानसामा बोला, “बेगम साहब, इस औरत को घर में मत आने दिया कीजिये।”
“क्यों भई?” सुलताना ने ज़रा गुस्से से पूछा, फिर ज़रा खिसियाकर बोली- “तुमसे क्या मतलब? जाओ अपना काम करो!”
मगर बूढ़े खानसामा ने बरसों इस घर में गुज़ार कर जो अपनी हैसियत क़ायम की थी, वह उसे आसानी से छोड़ने पर तैयार न था; बोला, “यह अपने मियां को छोड़कर आई है, अपने घर से भागकर! और यहाँ रामोतार से फंसी है, ठीक नहीं है यह औरत!”
सुलताना को जैसे किसी ने ढेला खेंच कर मारा। उसने भड़क कर पूछा “कौन राम अवतार?”
“वही, सरकारी दफ्तर का रात का चौकीदार!”
और राम अवतार जैसे सुलताना के सामने आकर खड़ा हो गया- खाकी वर्दी पहने जो उसे सरकार की तरफ से मिली थी, हाथ में मोटा सा डंडा और टोर्च, पैरों में बड़े-बड़े जूते। कभी-कभी जब रात में राम अवतार की खांसी या पहरे की आवाज़ आती, “हुनक हा हा, होशियार, हा हा… हुनक हुनक आहाक आहाक!” तो वह भी आवाज़ दे लिया करती थी “राम अवतार!”
दीवार के उधर से वह फ़ौरन जवाब देता, “घबराइए नहीं सरकार, हम जाग रहे हैं!” वह सुलताना का चौकीदार नहीं था, फिर भी वह कितना भला था जो हमेशा उसे इस तरह इत्मिनान दिला देता था। फिर जैसे वह चौंक पड़ी, खानसामा कह रहा था, “यह अपने आदमी को छोड़ कर भाग आई है। रामोतार ऊंची जात का है, राजपूत ठाकुर है वह और यह नीच जात है। न जाने इसने उसे क्या खिला दिया है, तभी तो नीच जात के साथ…..”
“ख्वामख्वाह की बकवास करते हो!” सुलताना चिढ़ गई, “सच देखो न झूठ जानो, तुम लोगों को सुनी सुनाई गप उड़ाने से मतलब है बस! जाओ, रात का खाना देखो, बेकार के लिए…”
खानसामा मिर्च का डिब्बा लिए बड़बड़ाता हुआ चला गया।
सुलताना ने खानसामा को तो चले जाने का हुक्म दे दिया, लेकिन उसके अपने दिमाग़ में जो लगातार खयालात चले आ रहे थे उनको निकल जाने का हुक्म देना उसके बस की बात न थी और उसे अपने आपसे यह बात कुबूलनी ही पड़ रही थी कि खानसामा की बातों से उसे धक्का सा लगा था। शामली ने ऐसा क्यों किया? उसने अपने शौहर को छोड़ा, घर से भागी और यहाँ राम अवतार से ताल्लुक किये थी। और वह तो जो खैर था सो था उसने सुलताना से भी तो झूठ बोला कि उसका आदमी मर गया है। आखिर झूठ बोलने की क्या ज़रूरत थी? उसे सुलताना पर भरोसा करना चाहिए था कि वह समझ जाएगी। शायद यह नीच जात की औरतें… अरे नहीं, नीच और ऊंच जात क्या होती हैं भला? जात कुछ नहीं होती, वह तो यही मानती है न? …उफ़ !
दूसरे दिन शाम को मग़रिब के वक़्त वह औरतों के किसी जलसे से लौटी। अँधेरा तकरीबन छा गया था, दोनों वक़्त एक दूसरे से गले मिल रहे थे। शामली की कोठरी से धुआं निकल रहा था लेकिन चराग नहीं जला था। चूल्हे के सामने आग की रौशनी में शामली के दोनों हाथ रोटियां पकाते हुए दिखाई दे रहे थे। सर पर ओढ़ी हुई हरी साड़ी के लाल किनारे में से उसकी नाक का सिरा भी दिखाई दे रहा था। रोटी पकाते-पकाते वह बार-बार पल्लू से आंसू पोछती जाती थी, पास ही दो तीन ईंटें एक के ऊपर एक रखकर राम अवतार बैठा था। उस वक़्त वह खाकी वर्दी के बजाय सफ़ेद धोती और कुर्ता पहने हुए बहुत अच्छा लग रहा था। सुलताना को एकदम से खयाल आया कि राम अवतार और शामली की जोड़ी बहुत अच्छी लगेगी।
राम अवतार उसे देखकर खड़ा हो गया और सलाम करके दूसरी तरफ चला गया। सुलताना धीरे-धीरे शामली के नज़दीक आकर खड़ी हो गई। कुछ मिनट उसे ख़ामोशी से देखती रही फिर अहिस्ता से बोली, “शामली हमारा खानसामा कहता है तेरा आदमी जिंदा है; तू तो कहती थी की वह मर गया?”
सुलताना को पूरी उम्मीद थी कि शामली कहेगी, “नहीं बीबी जी, खानसामा को भला क्या पता? वह तो मर चुका!” फिर वह अन्दर जाकर खानसामा को खूब डांटेगी कि ख्वामख्वाह तुम लोग एक मासूम पर इलज़ाम लगाते हो, बेचारी विधवा, वगैरह वगैरह! लेकिन शामली ने नज़रें उठाकर बड़े तंजिया अंदाज़ में सुलताना को देखा और अहिस्ता से बोली, “अगर वह जिंदा है, तो भी क्या हुआ? मेरे लिए तो वह मर ही गया है!”
सुलताना को जैसे एकदम बिजली का करंट मार गया- हाय रे, अपने शौहर के बारे में ऐसी बात!
सुलताना को चुप देखकर शामली मुस्कुराई, “वह समझता था कि रोटी कपड़ा देगा और हुकुम चलाएगा। हमारे हाथ पाँव चलते हैं, हम काम करते हैं, उस जैसे दस को खिलाने की हिम्मत रखते हैं हम!” और फिर वह आटे के बर्तन में पानी लेकर जोर-जोर से अपने हाथ मरोड़-मरोड़ कर धोने लगी जैसे अपने शौहर के कान उमेठ रही हो!
सुलताना ख़ामोशी से अपने दरवाज़े की तरफ बढ़ गई, लेकिन उसके ज़हन में एक तूफ़ान बरपा था। बेशक शामली बड़ी हिम्मत रखती थी जो उसने ऐसा सोचा, लेकिन हाय, उसने अपने शौहर के बारे में किस दिल से यह बात कही? शौहर, कितनी प्यारी चीज़, उसका सुहाग, शौहर इस दुनिया में औरत का सबकुछ…! मगर यह नीच जात, इसीलिए तो…! उसने अपने सर को जोर से झटका- फिर उसे नीच जात का ख़याल आया? वह तो इस बात को उसूल की हैसियत से मान चुकी थी न कि इस समाज की शादी कानूनी जकड़न थी, और कुछ नहीं। लेकिन आज जब यह उसूल नंगा होकर सामने आ गया तो वह डर गई; उसका दिल, दिमाग़, उसके वर्ग के मकड़ी के जालों में उलझ कर रह गए। तो क्या यह उसूल उसने सिर्फ दूसरों को कायल करने के लिए अपना लिए थे? बगैर समझे हुए बस रट लिए थे? लेकिन दादी और अम्मी जो कहा करती थीं न… और यहाँ तो रोटी कपड़े को ठुकरा देने का मामला था। लेकिन शौहर? औरत की इज्ज़त, विकार… मुहब्बत? मगर… मगर… उसने घबराकर खानसामा को चाय लाने के लिए आवाज़ दी।
2
कुछ हफ़्तों बाद होली थी। उसकी बच्चियां, शागिर्द पेशे में होली खेले निकल गईं; खानसामा सबसे छुपकर अपनी कोठरी में बैठा था। वह अकेली बैठी इम्तिहान के पर्चे जांच रही थी। पहले गैलरी में कदमों की आहट सी हुई, फिर झंझरों की मौसूकी सुनाई दी, फिर शामली का साया दरवाज़े में दिखाई दिया। उसने बड़े-बड़े लाल और नीले फूलोंवाली नकली रेशम की साड़ी पहन रखी थी, ज़र्द चमकदार साटन का ब्लाउज, दांतों में मिस्सी, मुहं में पान, आँखों में गहरा काजल और घनी भंवों के बीचो बीच एक बड़ी सी सुनहरी टिकली जो गर्दन के हर घुमाव के साथ यूँ रह-रहकर तड़पती जैसे सुरमई बादलों में कभी-कभी कौंधा लपक जाता है। हाथ में पीतल की एक थाली लिए वह यूँ सुलताना के सामने आकर खड़ी हो गई जैसे अजंता की सांवली शहजादी में जान पड़ गई हो। थाली में कई तरह के रंग थे जिनमें अबरक के नन्हे नन्हे ज़र्रे दमक रहे थे। एक किनारे पर गुलाबी काग़ज़ पर कुछ लड्डू थे। उसने बगैर कोई नोटिस दिए एक चुटकी भरकर रंग उठाया और पीछे हटती हुई घबराई सुलताना के माथे पर मल दिया। फिर उसने एक लड्डू उठाया और सुलताना के मुहं में देने लगी। सुलताना की आँखों में आंसू आ गए; मुहं पर हाथ रखकर धीरे से बोली, “शामली! मैं मिठाई नहीं कहूंगी. मैंने.. एक मन्नत रखी है न! मैं अभी मिठाई नहीं खा सकती! जब साहब..”
शामली जैसे यकलख्त सब समझ गई। लड्डू को फिर थाली में रखते हुए, हाथ उठाकर बहुत संजीदगी से बोली, “बीबी जी, आप दिल छोटा न कीजिये, भगवान् ने चाहा तो सब ठीक हो जायेगा। साहब जेल से छूट जायेंगे और आपके पास लौट आएंगे!” फिर हंसकर बोली, “तब हम सब आपको मिठाई खिलाएंगे, मगर..” उसकी आँखों में प्यार और शरारत एक साथ झलकने लगे, “फिर यह है कि तब आप हमारे हाथ से क्यों खाएगी? आपको तो तब साहब खिलाएंगे।”
सुलताना झेंप गई और बात बदलने के लिए उसने अपने बैग में हाथ डाला। पांच का नोट उसकी हथेली में आकर बाहर निकलने ही वाला था कि शामली ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोली “देखिये हमको कुछ दीजिये विजियेगा नहीं!”
जब उसने जाने के लिए पीठ मोड़ी तो सुलताना ने बड़ी हिम्मत करके गला साफ़ किया और अटकते हुए लहजे में बोली, “शामली, तू इतनी अच्छी है, मगर तूने अपने आदमी को क्यों छोड़ दिया?”
शामली ने नज़रें नीची कर लीं और पाँव के अंगूठे से ज़मीन रगड़ने लगी। चाँदी की चमकदार झांझर में उसके पाँव में लगा हुआ सुर्ख महावर परछाईयां बनकर डोलने लगा। दूसरे लम्हे उसने नज़रें उठायीं, उनमें कुछ मायूसी, कुछ तंज़ था। धीरे से बोली, “जाने दीजिये बीबीजी, आप नहीं समझेंगी।” और फिर वह झाँझरें बजाती, बिछुए झंकाती चली गई।
शामली के जाते ही खानसामा आ गया और सीनी में खाना पकाने का सामान उसके सामने रखते हुए बोला, “बड़े साहब का चपरासी कहता था- राम अवतार को नौकरी से जवाब मिलने वाला है।”
“अरे क्यों ?” वह उछल पड़ी।
“बात यह है कि चपरासी, फराश, माली और कई एक छोटे बाबुओं ने शिकायत की है कि यहाँ क्वाटरों में बदमाशी होती है। हम लोग बाल बच्चेदार हैं, घरों में सयानी बहू बेटियां है और यह औरत आवारा है। बड़े बाबू भी कहते थे कि राम अवतार की हरकते ठीक नहीं हैं। कल शाम को सुना नहीं था आपने?”
“हाँ हाँ, कल शाम हमने कुछ झगड़े की आवाजें सुनी तो थीं। क्या बात थी?” सुलताना को याद आया कि कल झुटपुटे के वक़्त उसने कुछ झगड़े की आवाजें सुनकर चुपके से खिड़की खोली थी तो इतना दिखाई दिया कि कुछ लोग पलंग पर बैठे जोर-जोर से बातें कर रहे हैं, इतनी तेज़ और जल्दी-जल्दी कि कुछ समझ में नहीं आ रहा था। राम अवतार मुजरिम सा खड़ा था और उसके पास एक आदमी बाईसिकल पर टिका खड़ा था और एक आदमी, कोट पाजामा पहने, बड़े रोब से धमकी देने के अंदाज़ में बातें कर रहा था। शामली कहीं नहीं थी हालाँकि यह सारा झगड़ा उसी की कोठरी के सामने हो रहा था। फिर सुलताना ने खिड़की बंद कर ली।
“वह राम अवतार के बिरादरी के लोग थे बेगम साहब। उसके चाचा का बेटा भी था। वे ऊंची जात के लोग हैं; रामोतार के माँ बाप ने बिरादरी में इसकी बात पक्की कर दी है, मगर अब यह यहाँ इसके चक्कर में फंस गया है, और…” वह रुक गया क्योंकि उसे अहसास हुआ कि सुलताना उसकी बात सुन ही नहीं रही है। खिसियाकर बोला, “गोश्त में क्या लौकी पड़ेगी बेगम साहब?”
सुलताना जैसे ख्वाब से चौंकी- “ऐ? …हाँ, ठीक है।”
खानसामा ने चुपचाप सीनी उठाई और निकल गया।
सुलताना ने एक नज़र उसे जाते हुए देखा, फिर अपने कागज़ इकट्ठे कर ही रही थी कि दस्तक हुई। उसने दरवाज़ा खोला और राम अवतार को देखकर हैरान रह गई। वैसे तो कभी कभार सुलताना के ख़त जब ग़लती से सरकारी दफ्तर में चले जाते थे तो राम अवतार ही देने आता था, मगर आज उसे राम अवतार को देख कर अजीब सा लगा। तो यही था शामली का वह महबूब जिसपर इतना किस्सा हो रहा था। शामली उसे चाहती थी, शामली जो कह गई थी- “आप नहीं समझेंगी!”
“बीबी जी यह आपका ख़त आया था, बड़े बाबूजी ने मुझे अभी दिया है।”
सुलताना ने हाथ बढ़ा कर ख़त ले लिया और बोली, “राम अवतार! यह.. यह तुम्हारी नौकरी के बारे में क्या सुनने में आ रहा है?”
राम अवतार ने नज़रें नीची कर लीं। चुप रहा।
सुलताना उसकी इस चुप्पी से रुआंसी हो गई। जी चाहा चिल्लाकर राम अवतार से कहे- “खुदा के लिए तुम लोग मुझे अपना दोस्त समझो। यह दीवार जो मेरे और तुम्हारे बीच खड़ी है इसे गिरा दो! राम अवतार शामली से कहो, मुझसे इतना दूर न रहे। मुझे समझने का मौक़ा भी तो दे! तुम दोनों शागिर्द पेशे में पैदा हुए और मैं एक कोठी में, तो इसमें मेरा क्या कुसूर है?” मुश्किल से बोली, “क्या शामली की वजह से? क्या किसी ने तुम दोनों की शिकायत की है?”
राम अवतार ने धीरे से बस इतना कहा, “कुछ नहीं सरकार, अब क्या आपसे कहूँ!” और फिर वह सलाम करके चल दिया, जैसे उसका भी यही खयाल हो कि आपसे क्या कहूँ, आप नहीं समझेंगी।
सुलताना का खून खौलने लगा; गुस्से से नहीं, इरादे की शिद्दत से। उसने शामली और राम अवतार की चुनैती क़ुबूल कर ली। कल वह बड़े साहब से जाकर लड़ेगी और उनसे पूछेगी कि दो मासूम, नेक, मेहनतकश इंसानों की मोहब्बत में रोड़ा अटकाने का उनको क्या हक है? किसी को भी क्या हक है? अगर राम अवतार की नौकरी चली जायेगी तो वह उन दोनों को अपने घर में पनाह देगी, राम अवतार के लिए खुद नौकरी ढूंढेगी। बड़े आये बिरादरी वाले, मारपीट करने वाले… देखेंगे! कितनी ही देर तक वह बड़े साहब और राम अवतार की बिरादरी वालों से बहस करने के लिए अच्छे-अच्छे ज़ोरदार जुमले दिल ही दिल में बनाती और उनकी रिहर्सल करती रही। वह राम अवतार और शामली पर यह बात साबित करके रहेगी कि वह उनकी दोस्त है, कि वह सबकुछ समझती है। कल सुबह ही सुबह जाएगी वह!
अगले दिन वह बहुत जल्दी तैयार हो गई और कॉलेज के वक़्त से कोई एक घंटा पहले बाहर निकल आई। इस वक़्त बड़े साहब कोठी पर ही मिल जायेंगे। उसे यह भी उम्मीद थी कि शामली अपनी कोठरी के सामने ही मेजर साहब के बच्चे को प्रैम में घुमाती मिल जाएगी क्योंकि वह अक्सर बच्चे को घंटो सड़क पर घुमाती और पास के पार्क में ले जाती। और उसे यह सोचकर एक बड़ी पुरिस्रार सी ख़ुशी हुई कि शामली को तो गुमान भी न होगा की वह उसी की खातिर बड़े साहब से लड़ने जा रही है।
दरवाज़े से बाहर क़दम रखते ही उसने शामली का दरवाज़ा चौपट खुला देखा। न वहां उसका पलंग था, न बिस्तर, न बर्तन न कोई और सामान। चूल्हा बुझा पड़ा था और ताक पर रखा चिराथा औंधा पड़ा हुआ था। वह सन्नाटे में आ गई। दफ्तर में पानी पिलाने और झाड़ पोंछ करने वाली वहीं खाट बिछाए अपनी लड़की की जुएँ देख रही थी। उसने फ़ौरन सूचना दी, “सरकार, शामली भाग गई!”
सुलताना के मुहं पर जैसे किसी ने तड़ाक से एक तमाचा मारा! “कब?”
“पता नहीं सरकार। रात तक तो थी।”
“और राम अवतार?”
चपरासन हंसी, “रामौतार हैंगे। रो रहे हैं अपने लिखे को। ऐसी नीच ज़ात रांडों का क्या है बीबी जी, आज एक किया, कल दूसरा, परसों तीसरा… नीच जात हैं न!” और उसने जोर से अपने नाखूनों के बीच एक जूं धरके पीस दी जैसे शामली का ही कचूमर निकाल दिया हो।
सुलताना के कदम लड़खड़ाने लगे। अब बड़े साहब के पास जाना बेकार था; किस मुहं से जाती और क्या कहती! धीरे धीरे चलती हुई सदर फाटक की तरफ बढ़ी। फाटक के पास स्टूल पर राम अवतार बैठा था। उसने रोज़ की तरह सुलताना को सलाम भी किया और बढ़कर अधखुला फाटक भी खोला, मगर मुस्कुराया नहीं और फिर जाकर स्टूल पर बैठ गया.. गुमसुम, उदास, अकेला।
सुलताना ने सिर झुका लिया और आगे बढ़ गई। दरअसल उसे खुद ही राम अवतार से आँखे चार करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। आखिर वह भी औरत थी; और एक वह भी औरत थी जो आज राम अवतार को दगा देकर भाग गई थी। अलबत्ता सुलताना ने इतना ज़रूर महसूस किया कि चपरासी, अर्दली, माली वगैरह जो राम अवतार से खिंचे-खिंचे रहने लगे थे आज उसके करीब बैठे थे और उनके चेहरे किसी नामालूम सी ख़ुशी से खिले जा रहे थे। वे राम अवतार को बहलाने की कोशिश कर रहे थे।
सड़क तक पहुँचते-पहुँचते सुलताना को शामली से नफरत सी महसूस होने लगी। बेचारा राम अवतार! तो यह ठीक ही था कि नीच जात.. उफ़! फिर उसे जात की ऊंच नीच का ख़याल आया! चलते-चलते रास्ते में उसे जितनी औरतें मिली, सबके बारे में वह यह अंदाज़ा लगाने की कोशिश करती रही कि क्या यह भी नीच ज़ात हैं? और अगर हैं तो क्या यह भी अपने चाहने वालों को दगा देकर भागी हैं? नाहक उसने शामली से इतना प्यार किया, फजूल उसको इतना सिर चढ़ाया, सचमुच ही कम औकात निकली.. नीच जात! उसने जोर से ज़मीन पर थूका और आगे बढ़ गई!
3
भला इतने दिन बाद और इतनी दूर से वह शामली को कैसे पहचान लेती? लेकिन शक उसे पहली ही नज़र में हो गया था कि सिर पर अमरूदों की झापड़ी रखे, पीली साड़ी बांधे, जो यह औरत सिकंदर बाग़ के फाटक में मुड़ी है, यह शामली ही है। उसने अपने रिक्शेवाले से कहा कि उसका पीछा करे और उसके बराबर से रिक्शा निकाले ताकि वह अच्छी तरह से देख सके। अपने बिलकुल पीछे रिक्शे की खड़बड़ाहट सुनकर औरत ने मुड़कर देखा और एक मर्तबा फिर सुरमई बादलों में कौंधा सा लपक गया.. तो वह शामली ही थी!
रिक्शा बढाते वक़्त सुलताना ने सोचा था कि अगर वह शामली निकली तो वह उसकी ऐसी खबर लेगी कि वह सात जन्म तक याद करेगी। चुनांचे उसने रिक्शा रुकवाया, उतरी और फ़ौरन ही शामली को फटकारना शुरू कर दिया, “शामली तू कितनी बुरी है! तू भाग क्यों आई? बेचारा राम अवतार इतना रोता है तेरे लिए, आधा भी नहीं रह गया है, सब उसकी हंसी उड़ाते हैं.. तूने बहुत बुरा किया; भला ऐसा करना था तुझे?”
सुलताना के इस तूफ़ान का जवाब शामली ने सिर्फ एक जुमले से दिया, “मगर वह अपनी सरकारी नौकरी से तो अलग नहीं हुआ न बीबी जी?”
सुलताना की समझ में कुछ नहीं आया; शामली जब टोकरी सिर पर ठीक करती हुई जाने को मुड़ने लगी तो वह बोली, “मगर शामली, यह क्या बात हुई?”
शामली रुकी, मुड़ी, उसने टोकरा उतारकर ज़मीन पर रख दिया और कमर पर दोनों हाथ रखे, जैसे उसने सुलताना की चुनौती क़ुबूल कर ली हो। गुस्से से बोली, “मगर क्या बीबी जी? मगर यह कि वह बार-बार मुझसे कहता था कि तेरे कारण मेरी सरकारी नौकरी छूटने वाली है। मुझपर एहसान धरता था। आप बताइए, क्या मैंने उससे कहा था कि तू सरकारी नौकरी कर या मत कर? मुझे उसकी नौकरी से प्यार था क्या? जाने अपने को क्या समझता था। बार-बार यही बात ‘नौकरी छूट जाएगी, तेरे कारण बदनाम हो रहा हूँ, तू मेरे लिए अपशकुन है’, और कहता ‘अगर नौकरी छूट जाएगी तो तुझे खिलाऊंगा क्या?’ अगर उसके घर बैठ जाती न, तो उम्र भर यही ताने देता.. और खाना खिलाने का क्या है बीबी जी, उस जैसे दस को कमा कर खिलाने की हिम्मत रखते हैं हम।”
इतना कहकर वह झुकी और टोकरा उठाकर सिर पर रख लिया.. एक पल खामोश रही, फिर सुलताना की तरफ देखा। उसकी बड़ी-बड़ी कटीली आँखों में लबालब आंसू भरे थे, धीरे से बोली, “रामोतार ठीक तो है न बीबी जी? उससे मेरा.. मेरा नमस्ते कह दीजियेगा।”
सुलताना ने सिर झुका लिया और उतनी ही आहिस्ते से बोली, “कह दूँगी, ज़रूर कह दूंगी।”
आंसुओं के बीच से शामली मुस्कुराई जैसे कहती हो, “हाँ, ठीक है, अबकी बार शायद आप समझ गईं।”