एक लड़की के बचपन की सबसे मधुर स्मृतियों में एक स्मृति उसकी माँ के सुन्दर-सुन्दर कपड़े और साड़ियों की स्मृति और मेरी स्मृति में मेरी माँ की नीली, मोरपंखिया, सुन्दर, चमकीली, सोने की तारों जड़ी, बनारसी साड़ी।

यह साड़ी माँ को वरी की बाक़ी साड़ियों के साथ मिली थी। उस ज़माने की महँगी, क़ीमती साड़ी थी। और पुराने समय में यह सब विशेषताएँ हमेशा याद रखी जातीं और याद करवायी भी जाती थीं। और मैं जब भी मौक़ा मिलता, माँ के कमरे की अलमारी की सौंधी ख़ुशबू वाली शेल्फ़ के आयत के परिमाप में जैसे परी लोक ही घूम आती। रंग-बिरंगी साड़ियाँ, मेकअप का सामान और न जाने क्या! क्या! अरे! अरे! बस! बस! रुक जाओ! इतना सब मत सोचो! मेरी माँ की अलमारी में ऐसा कुछ भी नहीं था। बस कुछ साड़ियाँ और सबसे सजीली, मनभावन नीली बनारसी साड़ी!

अथक परिश्रमी मेरी माँ केवल हमारी माँ के रूप में ही प्रभुत्वपूर्ण थीं। बाक़ी रिश्तों में उन्हें कभी उस अधिकार सत्ता का अहसास नहीं हुआ था, जो हमारी पढ़ाई, कपड़ों, अनुशासन के बारे में उन्हें हमारे सम्मुख शक्तिशाली बनाता था। ट्यूशन पढ़ाना, कपड़े सिलने, घर के सभी काम जैसे कि रूढ़िवादिता के डंक से ग्रसित रसोई की दैनिकी, हम दो टाँगो वालों के अतिरिक्त चौपाओं का पालन-पोषण आदि। सब काम निःस्वार्थ, बिना किसी पारितोषिक की आकांक्षा के, बस काम, काम और काम! इन सबमें अपने बारे में सोचने का समय ही नहीं था।

मगर उनके मन की सुन्दरता, पवित्रता के दर्शन कमरे की हर दीवार-कोने, आँगन के पक्के-कच्चे रूप में, गमलों-क्यारियों, पीपल के पेड़ के नीचे, चौपाओं की आरामगाह, गोबर के उपलों की मीनारों की एक सारता में हर कहीं आपको आराम से हो सकते थे। और जब कोई अतिथि उनके इस सन्तोष की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करता तो घर के सब सदस्य (मेरी दादी, दादू, पापा जी और हम) सब गर्व से फूले न समाते।

ऐसी माँ के कमरे की अलमारी में उनकी शेल्फ़ और उसमें नीलिमा भरती नीली बनारसी साड़ी। जब माँ यह साड़ी पहनती तो कैलेण्डर में छपने वाली देवी के समान हमारी आँखों की पुतलियों और पापा के दिल पर छप जाती।

मम्मी को चाव होता था कि नहीं, मगर मुझे बहुत चाव होता था कि माँ वही साड़ी पहनेगी। और माँ मोहल्ले-बिरादरी की शादियों में क़रीने से तैयार होती। और मेरी मनपसन्द नीली बनारसी साड़ी को सम्मान देते हुए, अपनी परम सखी के रूप में ख़ुद पर समेटकर, सहेजकर साथ लिए जाती।

घुँघराले बालों के लटकन, कानों में सुशोभित सोने की झुमकों पर लताओं के समान बल खाकर जैसे उनकी रक्षा करते। मैहरून रंग की लिपस्टिक, कजरारी आँखें, सोने की चूड़ियाँ दोनों हाथों में मगर साड़ी वही नीली बनारसी। क्योंकि बुज़ुर्गों का मानना था कि सच्चा शृंगार सोने के गहनों से ही होता है। और यह सत्य भी है, मगर ज़माना बदल रहा था, गहनों के इलावा औरतें शादी-समारोह में अधिक बारीकी से अध्ययन, मूल्याँकन, समीक्षा अब कपड़ों की करने लगी थीं।

हमें ऐसी दुविधा का अहसास कभी नहीं हुआ, क्योंकि माँ थी ना! भाइयों के कपड़े तैयार करना, और मेरे कपड़े तो माँ ख़ुद ही नए-नए फैशन के सिलती थी। तब भी मेरा सपना था कि बड़ी होकर वही नीली साड़ी पहनूँगी, या सूट बनवा लूँगी।

उस दिन भी माँ तैयार हुई मगर साड़ी की फॉल साथ छोड़ने लगी थी। फिर सिलाई ठीक की, इस्तरी किया और फिर तैयार हुई।

मगर शादी में गली-मोहल्ले-शरीके की औरतों की आँखों को देख माँ चुप-चुप ही रहीं। मुस्कान शायद जैसे माँ ने उन्हीं औरतों को बराबर बाँट दी थी।

घर आयीं, सुबह हुई, दोपहर भी हो चुकी थी। मगर माँ चुप-चाप, बुझी-बुझी सी काम कर रही थीं। हम बच्चों को समझ आते हुए भी समझ नहीं आ रहा था कि क्या बात है? न ही एक सम्मान रूपी डर के कारण पूछ पा रहे थे कि क्या हुआ माँ तुम्हें?

शाम की चाय का आनन्द लिया जा रहा था, तभी वही कल हुई शादी वाले घर की औरतें मिठाई देने आ गईं। पानी मैंने पिलाया। चाय का पूछा, मगर माँ न जाने कहाँ थी? तभी दादी की आवाज़ पर माँ धम से न जाने कहाँ से प्रकट हो गई। बिना नज़र मिलाए सबको नमस्ते प्रणाम हुआ। और माँ फिर रसोई में। एक औरत, धीरे-धीरे न जाने क्या बतिया रही थी दादी से! हमें क्या पता?

मगर उनके जाने के बाद फिर माँ का नाम गूँजा और माँ के दादी के पास आते-आते, मैं दादी के कहे अनुसार वही नीली बनारसी साड़ी भी ले आयी।

बरामदा सजा हुआ था। कुर्सी पर दादा जी, चारपाई पर दादी जी और हम माँ के आस-पास सामने खड़े थे। दादी जी ने साड़ी की कमज़ोरी पकड़ी और फॉल के कोने से पकड़कर मेरे सजीले नीले रंग के सपने को अन्तिम कोने तक यूँ उधेड़ा जैसे कल के ज़ख़्म पर लगी टेप पट्टी को डाक्टर बड़ी निडरता से खींचता है।

माँ का तो पता नहीं पर मैं अपने कमरे में जाकर बहुत रोयी थी। और अपने दुःख में मैं इतनी व्यस्त रही कि पता ही न चला कि माँ ख़ुश थी कि सन्तुष्ट। मगर जो भी था पर अब वो नीली बनारसी साड़ी साबुत नहीं थी। पल्लू, बॉर्डर सब— पर कटे पंछी की मानिन्द दादी की चारपाई के पाये पर यूँ लटक रहे थे मानो फाँसी चढ़ गए हों।