कहानी: निबन्ध
लेखक: रहनवर्द ज़रयाब (Rahnaward Zaryab)
दारी से अंग्रेज़ी अनुवाद: डॉ. एस. वली अहमदी
हिन्दी अनुवाद: श्रीविलास सिंह
(रहनवर्द ज़रयाब का जन्म 1944 को क़ाबुल के पड़ोस में रिका खान में हुआ था। वे अफ़गानिस्तान के प्रसिद्ध उपन्यासकार, कहानीकार, आलोचक और पत्रकार हैं।)
मैं प्राथमिक पाठशाला के चौथे वर्ष में था। कक्षाएँ प्रारम्भ होने के एक शुरुआती दिन, हमारे अध्यापक कक्षा में आये और उन्होंने कहा, “बच्चों…”
और फिर, अपनी आँखें ज़मीन पर टिकाए, उन्होंने कक्षा के दूसरे सिरे की ओर चलना शुरू कर दिया। वे मानों फ़र्श पर रखीं स्लेटें गिन रहे थे। उस दौरान वे बहुत छोटे क़द के लग रहे थे। वास्तव में हमारे अध्यापक काफ़ी छोटे क़द के व्यक्ति थे।
एकाएक वे दीवार के पास रुक गए। उन्होंने ऊपर देखा, जैसे कि उन्होंने गिनती पूरी कर ली हो। उनके होंठ कई बार हिले फिर आख़िर में वे बोले, “कल के लिए, तुम में से हरेक एक ‘निबन्ध’ लिखेगा—वसंत के बारे में…”, उन्होंने कहा।
यह हमारे लिए एक अचम्भे की भाँति था। हमारी आँखें आश्चर्यवश अध्यापक महोदय पर टिकी हुई थीं जबकि हमारे कान बजते हुए महसूस हो रहे थे।
“एक निबन्ध?” हम सब आश्चर्य चकित थे, “वसंत के बारे में?”
अध्यापक महोदय ने निश्चय ही हमें लगे झटके को समझ लिया होगा। इसलिए उन्होंने समझाना शुरू किया कि वे हमें क्या करने को कह रहे थे।
“उससे मेरा मतलब, मेरा मतलब है कि… तुम लोग जानते हो, वसंत के बारे में एक ‘निबन्ध’। यही करना है। बताओ कि लोग वसंत में क्या करते हैं… उदाहरण के लिए… बल्कि जानवर क्या करते हैं—यही सब और इसी तरह का।”
अध्यापक महोदय ने, यह मानते हुए कि हम सब भी उतने ही बुद्धिमान थे जितने कि वे स्वयं, सोचा कि उनकी व्याख्या पर्याप्त थी। लेकिन हम अब भी उसी प्रश्न से दो-चार थे, “वसंत के बारे में एक निबन्ध।”
विद्यालय से घर लौटते हुए मैंने ‘निबन्ध’ जो कि हमें लिखना था, के अतिरिक्त किसी बात के बारे में नहीं सोचा।
जब मैं घर पँहुचा, मैंने अपनी माँ से पूछा, “क्या तुम जानती हो निबन्ध क्या होता है?”
मेरी माँ ने मेरी ओर आँखें फैलाकर देखा और कहा, “नहीं, मैं नहीं जानती कि यह क्या होता है। क्या तुमने आज यही सीखा है?”
“मैंने इसे सीखा नहीं है”, मैंने कहा, “लेकिन मुझे एक लिखना है। मुझे एक ‘निबन्ध’ लिखना है।”
दोपहर के भोजन के बाद मैंने लिखना शुरू किया। मेरा मतलब है कि मैंने कॉपी के सिरे पर लिखा लेकिन फिर आगे जारी न रख सका। मुझे नहीं मालूम था कि क्या लिखना था। इसलिए मैं सोचता ही रहा, सोचता ही रहा, किन्तु मेरे दिमाग़ में कुछ भी नहीं आया। अंततः मैं खिड़की के पास खड़ा हो गया और बाहर मैदान में देखने लगा।
मैंने अपने बग़ीचे में एक पेड़ की डालियों पर गौरैयों को देखा। पत्तियों की हरी पृष्ठभूमि में गौरैया पीली दिख रही थीं। मैंने अपनी मुर्ग़ी को एक कोने में धूल में खेलते हुए देखा। मुर्ग़ी मुझे नीले रंग की दिख रही थी। एक छोटी फ़ाख़्ता छत की कड़ियों के बीच घोंसला बना रही थी। नन्ही फ़ाख़्ता मछली के आकार की एक पतंग जैसी दिख रही थी। फिर मैंने हमारी बिल्ली को देखा। जो धूप को नापसंद करती थी और दीवार के साये में लेटी थी। बिल्ली मुझे हरे रंग की दिख रही थी।
मैं फिर अपने लिखने की कॉपी के पास आ गया। प्रश्न अब भी मेरे मस्तिष्क की दीवारों पर दबाव डाल रहा था, “वसंत के बारे में एक निबन्ध।”
जब मैं सोच ही रहा था, मैंने अपने पड़ोसी को घर से कहीं जाते हुए देखा। वे एक दुबले-पतले और लम्बे आदमी थे। मेरे पिता हमें बताया करते थे कि वे एक कवि थे। जब उन्होंने मुझे देखा, वे मेरे पास आ गए।
“तुम दुखी क्यों हो?”, उन्होंने पूछा।
“हमारे अध्यापक ने हमें एक निबन्ध लिखने को कहा है”, मैंने उत्तर दिया, “वसंत के बारे में।”
“और तुम नहीं लिख सकते, है न?”, उन्होंने पूछा।
“हाँ”, मैंने कहा।
मेरे पड़ोसी हँसने लगे। उन्होंने मेरी बाँह पकड़ी। उन्होंने ऊपर आसमान की ओर देखा और अपनी उँगलियों से हवा में एक अर्धवृत्त बनाया।
“अपने चारों ओर देखो”, उन्होंने कहा, “जो कुछ भी तुम देखो, बस उसे लिख डालो। यही वसंत के बारे में निबन्ध होगा।”
एकाएक सभी चीज़ें मेरे मस्तिष्क में स्पष्ट होने लगीं।
“मैं समझ गया!” मैं प्रसन्नता से चिल्लाया। फिर मैं जल्दी से घर की ओर भागा। मैं खिड़की के पास खड़ा था। हर चीज़ वैसे ही दिख रही थी जैसे मैं छोड़कर गया था। मेरी माँ अभी भी पेड़ के पास बैठी पकाने के लिए चावल साफ़ कर रही थीं।
मैंने कलम उठायी और शीर्षक लिखा, “वसंत के बारे में एक निबन्ध।”
फिर मैंने लिखा, “वसंत में पीली गौरैया पेड़ों की डालियों पर फुदकती हैं। नीली मुर्ग़ी धूल में खेलती है। नन्ही फ़ाख़्ता, जो मछली के आकार की पतंग जैसी लगती है, एक घोंसला बनाती है। हरी बिल्ली धूप को नापसंद करती है इसलिए दीवार के साये में सोती है। मेरी माँ पेड़ के नीचे बैठकर चावल साफ़ करती हैं। वसंत में आसमान साफ़ होता है। हर तरफ मधुमक्खियाँ उड़ रही होती हैं। और स्कूली बच्चे वसंत के बारे में निबन्ध लिख रहे होते हैं।”
मैं इससे अधिक नहीं लिख सका, लेकिन मैंने जितना लिखा था, उतने से ही प्रसन्न था।
अगले दिन, अध्यापक महोदय कक्षा में हमारे निबन्ध देख रहे थे। मेरा नम्बर आया। जो कुछ मैंने लिखा था, अध्यापक महोदय ने उसे पढ़ा। फिर उन्होंने एक क्षण को मेरी ओर जिज्ञासा से देखा। मेरा दिल तेज़ी से धड़क रहा था। अध्यापक महोदय ने मुझे अपनी मेज़ के पास आने का इशारा किया। मैं गया।
उन्होंने मेरी ओर बड़े आश्चर्य से देखा और कहा, “अपने अब्बा से कहो कि तुम्हें किसी डाक्टर को दिखाएँ।”
“क्यों सर?”, मैंने पूछा।
“तुम्हारी ऑंखें ठीक से काम करती नहीं लग रही हैं।”, उन्होंने जवाब दिया।
“वे बिलकुल ठीक हैं सर!”, मैंने कहा।
“अच्छा, फिर तुम्हें मालूम होना चाहिए कि गौरैया पीली नहीं होती, मुर्ग़ी नीली नहीं होती और बिल्ली कभी भी हरे रंग की नहीं होती। कभी नहीं। समझे?”, उन्होंने कहा।
“जी”, मैंने कहा।
अध्यापक महोदय ने कॉपी मुझे दी और कहा, “अब जाओ!”
मैंने कॉपी की तरफ़ देखा और एक बड़ा-सा लाल X दिखायी दिया। मुझे महसूस हुआ कि मेरी आँखें आँसुओं से भर गयी हैं। X का निशान मुझे ऐसा लगा मानों वे दो निर्मम तलवारें हों।
हारुकी मुराकामी की कहानी ‘सातवाँ आदमी’ यहाँ पढ़ें