वाह! ऐसा भी होता है
ओस की
संकोची शर्मीली-सी बूँद
गिरती है
अरवी पत्ते की गोद में
निर्निमेष।
जितने परायेपन से
अरवी उसे बिठाती है
उतने ही परायेपन से
बिना चिह्न छोड़े
ओस बूँद भी
उसके अंक से बह जाती है
नही सुहाये अरवी को भी
गीला होना
चिकनी-चुपड़ी सूरत लेकर रह जाती है
यह ‘निर्मोह’ का श्रेष्ठ उदाहरण हो सकता है,
है कि नही?
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