ओ निशा!
अब तो तमस् को पात्र में भरकर उड़ेलो
और जो तारा-गणों की मालिका सजती तुम्हारे कण्ठ पर, उसको उतारो
मालिका से ना रहे अब मोह मेरा
कालिका की गोल में अविचल बसेरा
अब उजाले चुभ रहे हैं जागती निद्रा में मेरी
ओ निशा! मुझको भरो निज अंक में
रोशनी की छद्म आभा से निःसर्ग कलंक में
अब न मुझको देखना भाता, दिखाना भी नहीं
नित्य एक ही डगर पर अब आना-जाना भी नहीं और घने आलोक से तामिस्र की गहरी गुहा में दो शरण, कर लो वरण शिशु-शिष्य का
इस सृष्टि के आघात से कर लो हरण
निज-पाश में बांधे रखो
तुम शशि को शेखरों के मस्तकों पर
धर ही दो पूरा का पूरा
मुझे धारो मुझे तारो
सँवारो रूप मेरा सतत् नित्य-अरूप होने तक
नहीं बाँटूँगा अपने आप का पावन अंधेरा
उन उजालों को
जो मेरी सृष्टि के आरम्भ से अवसान तक
रहता, मेरे अन्तस् को भरता और करता
मुझको ख़ाली
ख़ुद से ख़ाली
पूरा ख़ाली!
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