नये मकान के सामने पक्की चहारदीवारी खड़ी करके जो अहाता बनाया गया है, उसमें दोनों ओर पलाश के पेड़ों पर लाल-लाल फूल छा गए थे। राय साहब अहाते का फाटक खोलकर अंदर घुसे और बरामदे में पहुँच गए। धोती-कुर्ता, गांधी टोपी, हाथ में छड़ी… हाथों में मोटी-मोटी नसें उभर आयी थीं। गाल भुने हुए बासी आलू के समान सिकुड़ चले थे, मूँछ और भौंहों के बालों पर हल्की सफ़ेदी।

“बाबू हृदय नारायण! …ओवरसियर साहब!” बाहर किसी को न पाकर दरवाज़े के पास खड़े होकर उन्होंने आवाज़ दी।

कुछ ही देर में लुंगी और कमीज़ में गंजी खोपड़ीवाला एक दुबला-पतला और साँवला व्यक्ति बाहर निकल आया। उसको देखकर राय साहब के मुँह पर आश्चर्य के साथ प्रसन्नता फैल गई। उन्होंने उसको देखकर रहस्यमय ढंग से पूछा, “मुझको पहचाना?”

और जब हृदय नारायण ने कोई उत्तर न देकर संकुचित आँखों से घूरना ही उचित समझा तो वे बोले, “कभी आप यहाँ गवर्नमेंट स्कूल में पढ़ते थे? अरे, मुझे भूल ही गए क्या? मेरा नाम नवलकिशोर राय…”

दोनों सहपाठी गले मिले। फिर वहीं बरामदे में कुर्सी पर आमने-सामने बैठे वे नाश्ता करते हुए बातों में खो गए, जो अपने स्कूल के अध्यापकों की विचित्रता से आरम्भ होकर बाल-बच्चों, ज़माने और इंसान की चर्चा से गुज़रती हुईं आसानी से परमात्मा से सम्बन्धित विषयों पर आ गईं।

“ब्रदर, स्त्री माया है!” सामने शून्य में एक क्षण खोए-खोए से देखने के बाद राय साहब बोले, “उसमें शैतान का वास होता है, वही भरमाता, चक्कर खिलाता और नरक के रास्ते पर ले जाता है। …पर भाईजान, मैं सिर्फ़ एक बात जानता हूँ, उसके सामने किसी की नहीं चलती, जो कुछ होता है, उसकी के इशारे से होता है। वह चाहता है, तभी हम चोरी, डकैती, हत्या, जना, बदकारी, सब कुछ करते और जहाँ उसकी मेहर हुई, सब मिनटों में छूट जाता है।”

“उसकी बड़ी कृपा है, नहीं हम तो कीड़ों-मकोड़ों से भी गए-बीते हैं।” हृदयनारायण ने भक्ति से गद्गद स्वर में कहा।

“गए-बीते कहते हो, अरे एकदम गए-बीते हैं। मैं तो भई, अपने को जानता हूँ। मेरे जैसा झूठा, बेइमान, नीच, घमंडी, बदकार कोई नहीं होगा। परंतु मुझ पापी को भी सरकार ने चरणों में थोड़ी जगह दे दी है।”

नौकर पान की तश्तरी लिए आ खड़ा हुआ था। दोनों मित्रों ने दो-दो बीड़े जमाए फिर राय साहब ने कहना आरम्भ किया, “तुम तो नहीं जानते न, बिहार के तराई इलाक़े में सौ बीघा ज़मीन ख़रीदने के बाद ही पिता जी का स्वर्गवास हो गया था, यहाँ भी डेढ़ सौ बीघा ज़मीन थी। घर-गृहस्थी का सारा बोझ अचानक मेरे कंधों पर आ पड़ा। लेकिन मुझे कोई चिंता नहीं थी… कैसा शरीर था मेरा, याद है तुम्हें न? ताकत, ज़िद और क्रोध तीनों मुझमें थे। सच कहता हूँ, जब अपने बंगले के सामने खड़ा हो जाता, तो लगता किसी क़िले के सामने खड़ा हूँ, ऊँचाई दो पोरसा अधिक बढ़ गई है, सिर में पक्का दस सेर लोहा भर गया है… किसी को अपने पैरों की धूल के बराबर तो समझता नहीं था। लोग मुझसे डरते और उनसे मुझे बेहद क्रोध और नफ़रत होती। मारने-पीटने, तंग, परेशान करने, जब इच्छा हो वसूली तहसीली करने में ही तबीयत लगती। मामूली रौब नहीं था अपना… मेज़-कुर्सी लगी है, अफ़सरान आ रहे हैं। गप्पें लड़ रही हैं, दावतें उड़ रही हैं, नौकर-चाकर दौड़-दौड़कर हुक्म बजा रहे हैं…” आवाज अचानक धीमी पड़ गई, “और वह शैतान वाली बात कही न! बिरादर, क़सम खाकर कहता हूँ पता नहीं क्या हो गया था—जहाँ किसी जवान स्त्री को देखा नहीं, पागलपन सवार हुआ। ख़ास तरह से इसका मज़ा बिहारवाले इलाक़े में ख़ूब था। वहाँ के लोग बहुत ग़रीब और पिछड़े हुए थे। मैं साल में आठ-नौ महीने तो वहीं रहता और ऐश करता। बीच में वैसे कभी कुछ दिनों के लिए आकर बाल-बच्चों और यहाँ की गृहस्थी की खोज-ख़बर ले जाता। एक तो मैं ख़ुद ख़ासा जवान था, इस पर पैसा और शक्ति न मालूम कितनी ही… लेकिन बाबू हृदयनारायण, ठीक बयालीस वर्ष की उम्र में शैतान की चपेट में इस तरह आ गया कि क्या बताऊँ! जानते हो, कौन था? पंद्रह-सोलह वर्ष की एक लड़की!”

“लड़की?” हृदयनारायण चौंक पड़े जैसे उनको ऐसी उम्मीद न हो।

“हाँ, लड़की!” राय साहब हास्यपूर्ण मुँह बनाकर इस तरह बोले जैसे बहुत साधारण बात हो, “वह भी एक मामूली किसान की! फ़सल की कटाई के समय मैं अपने बिहार के इलाक़े में पहुँचा था। वहाँ मेरा बंगला एक छोटे मैदान में है, जिसके दक्षिण में ख़ास गाँव है और उत्तर में ग्वालों का टोला। वह लड़की इसी टोले की थी। …उधर ही मेरा बग़ीचा पड़ता है। वहीं उस लड़की को देखा। वह दो और लड़कियों के साथ टिकोरे बीन रही थी। मुझको देखकर पहले तीनों भागीं। फिर वही लड़की पेड़ के नीचे छूटी खँचोली को लेने वापस आयी, तो एक क्षण ठिठककर शंकित आँखो से उसने मुझे देखा, जैसे पक्षी दाना चुगने के पहले बहेलिए को देखता है और आख़िर में खँचोली लेकर भाग गई। मैं तो दंग रह गया था। यह कैसी हैरत की बात थी कि इस गाँव में ऐसी ख़ूबसूरत लड़की बढ़कर तैयार होती है और मैं जानता तक नहीं।” और जैसे वह अपने मन के भाव ठीक से व्यक्त न कर पा रहे हों, इस तरह होंठों पर अँगुली रखकर कुछ देर तक सोचते से रहे, “क्या बताऊँ? …शाम को वकीलों के डेरों के सामने मुवक्किल लोग बाटी बनाने के लिए उपलों का जो अंगार तैयार करते हैं, उसको तो देखा है तुमने, उसी तरह वह दमक रही थी। कहीं खोट नहीं। भरी-पूरी। क़ुदरत ने जैसे पीठ और कमर पर हाथ रखकर उसके शरीर को पहले तोड़ा, ऐंठा और ताना, फिर किसी जादू के बल से बड़ा और जवान कर दिया था। बड़ी-बड़ी रसीली आँखें, छोटा मुँह… बड़ा भोलापन था उसमें।”

सूरज डूब गया था। आँगनों से उठनेवाले धुएँ और सड़क की धूल से चारों और कुहासा-सा छा गया था। सामने से कभी कोई एक्का या रिक्शा गुज़र जाता। कभी घर के अंदर से छोटे बच्चों का गिरोह पास आता, उनको कौतुक से देखता, चीख़-चिल्लाकर खेलता और चला जाता। और वे हर चीज़ से बेख़बर बात करने में इस तरह मशग़ूल थे, जैसे कई दिनों का भूखा सब सुध-बुध खोकर खाने पर टूट पड़े।

“समझे, भाई हृदयनारायण, उस लड़की की सूरत ध्यान पर क्या चढ़ी कि खाना-पीना सब कुछ हराम हो गया।” राय साहब का कथन जारी था, “इतनी उम्र हो गई थी, लेकिन किसी स्त्री के लिए ऐसी बेक़रारी कभी महसूस नहीं हुई थी। उसको पाने के लिए मैं क्या नहीं कर सकता था! उसका बाप भुलई मेरा ही आसामी था, सीधा-सादा किसान, जिसे पेट भरने के लिए खेती के अलावा इधर-उधर मज़दूरी भी करनी पड़ती। मैंने अँजोरिया को—लड़की का यही नाम था—अकेले में पाकर एक दो बार छेड़ा भी, पर वह नयी घोड़ी की तरह बिदककर भाग जाती। मुझमें अब इंतज़ार और बर्दाश्त की शक्ति नहीं रह गई थी। हारकर एक दिन मैंने चार आदमियों को लगाकर रात के अँधेरे में भुलई को ख़ूब अच्छी तरह पिटवा दिया…।”

“भुलई को पिटवा दिया? क्यों?”

“नहीं जानते? अरे हमारे देहातों में यह आम रिवाज था। जब बाबू लोगों को किसी ग़रीब की बहू-बेटी पसंद आ जाती, तो वे उसको तंग-परेशान करते, मारते-पीटते, खेतों से बेदख़ल कर देते, और सफलता न मिलने पर बुरी तरह पिटवा देते। फिर रात में उसके घर में घुसकर या किसी दूसरे तरीक़े से उल्लू सीधा करते। यह बहुत ही कारगर तरीक़ा समझा जाता। मैंने भी सभी फन इस्तेमाल किए। भुलई के हाथ-पैर बेकाम हो गए थे, सिर फट गया… शरीर में और भीतर घाव थे सो अलग। …अब भी नहीं समझे? …फिर मैं ही उसके आड़े वक़्त में काम आया। उसकी दवा-दारू के लिए मैंने ही पैसे उधार दिए, खाने के लिए गल्ला भिजवा दिया। भुलई की स्त्री हाल ही में मरी थी, एक लड़की और छोटे-छोटे दो बच्चों को छोड़कर, कोई नहीं था घर में। वह भारी मुसीबत में था और मुझे वह देवता समझने लगा। मैंने उसको राज़ी करवा लिया कि वह अँजोरिया को मेरे यहाँ भेज दिया करे, वह घास या चारा काट दिया करेगी… खाने भर को निकल आएगा।”

“फिर लड़की आने लगी होगी?”, जैसे कोई उत्सुकता हो, इस तरह हृदयनारायण ने प्रश्न किया।

“आती नहीं तो जाती कहाँ?” राय साहब बोले, “बस सुनते जाओ! हाँ, तो वह आकर काम करने लगी। मैं बेवक़ूफ़ नहीं था, ज़िन्दगी भर यही किया था, जल्दीबाज़ी से मामला बिगड़ जाता। …चिड़िया को मैंने परचने दिया। रोज़ मौक़ा देखकर उससे बात करता, उसके बाप की तकलीफ़ के लिए सहानुभूति प्रकट करता, मुझसे दूसरों का कष्ट देखा नहीं जाता इसकी चर्चा करता और उसके हाथ पर मजूरी से अधिक पैसे रख देता। वह बड़ी भोली थी, कुछ न बोलती और मेरी ओर टुकुर-टुकुर देखती रहती। ख़ैर, धीरे-धीरे उसकी भटक खुलने लगी। एक दिन दोपहर में जब लू चल रही थी और चारों तरफ़ सुनसान था, मैंने उसे अपने कमरे में बंद कर दिया…” उन्होंने मित्र के आश्चर्यविमुग्ध मुख को एक क्षण ग़ौर से देखा और बात का प्रभाव पड़ रहा है, इससे आश्वस्त और संतुष्ट होकर आगे कहा, “तो ब्रदर, किवाड़ बंद करते ही उसका मुँह सूख गया। रोनी शक्ल बनाकर वह बाहर जाने की ज़िद करने लगी। जब मैंने आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिया तो सचमुच रोने लगी। मेरे शरीर में अजीब झनझनाहट और सनसनाहट हो रही थी, मैं बेक़ाबू होने लगा। मैंने उसको बहुत पुचकारा और समझाया। क़समें खायीं कि मेरा प्रेम सच्चा है और उसके लिए अपनी ज़मीन-जायदाद, जान, सब कुछ क़ुर्बान कर सकता हूँ। आख़िर मैं इतना उतावला हो गया कि नीचे झुककर उसके पैर पकड़ लिए। यह मेरे लिए अजीब बात थी, क्योंकि औरत से इस तरह विनती करने का मैं आदी नहीं था, परंतु पता नहीं क्या हो गया था। वह रोती और सुबकती रही…”

अँधेरा फैलने लगा था। सड़क की बिजली और बाईं ओर कुछ ही दूरी पर हलवाई की दुकान की गैसबत्ती जल चुकी थी। राय साहब कभी ऊँची आवाज़ में और कभी फुसफुसाकर बोलते और अक्सर कनखी से चौखट व अहाते की ओर देख लेते।

“भैया अब देखिए, क्या होता है! …वह रोज़ आने लगी।” राय साहब कुछ देर तक अपने दाहिने हाथ को विचारपूर्ण दृष्टि से देखने के बाद बोले, “शुरू-शुरू वह बहुत उदास और दुखी रहती, पर मुझे होश-हवास नहीं था। लगता, इसको जितना प्यार करने लगा हूँ, उतना कभी किसी को नहीं करता था। देर तक उसके बालों पर हाथ फेरता, अपने प्रेम की सच्चाई की दुहाई देता। कभी-कभी पागल की तरह उसके पैरों को चूमने लगता। उसको हमेशा देखता रहूँ, यही इच्छा बनी रहती। वह ख़ुश रहे, ऐसी हमेशा कोशिश करता। अपने हाथ से रोज़ मिठाई खिलाना, अच्छी-अच्छी साड़ियाँ, साबुन, कंघी, इत्र फुलेल, रुपए-पैसे देता… धीरे-धीरे उसकी तबीयत बदलने लगी। कुछ दिनों बाद चहकने लगी। और मेरे देखते ही देखते वह भोली-भाली लड़की इतराना, नखरे करना और रूठना-मचलना सीख गई। मुझे देखते ही उसकी आँखें चमक उठतीं… दौड़कर मुझसे चिपट जाती। उसे मज़ाक़ करना भी आ गया था, मेरी पकड़ से छिटक-छिटक जाती और ख़ूब हँसती। पर उसका भोलापन कहीं नहीं गया। उसे मैं जब और जहाँ बुलाता, वह बिना हिचक आ जाती। उसकी ख़ुशी का अंत नहीं था और वह कहती कि मेरे यहाँ छोड़कर उसकी कहीं तबीयत नहीं लगती। ख़ास तरह से उस समय उसकी हालत देखने लायक़ होती, जब मैं कुछ दिनों के लिए बाहर चला जाता और वापस लौटता। मुझे देखते ही वह बहुत उत्तेजित हो जाती और सिसक-सिसककर रोने लगती। कभी मेरी तबीयत ढीली होती तो वह बहुत चिंतित और परेशान हो जाती… सच कहता हूँ, वह मेरे पीछे पागल हो गई थी, उसे किसी बात का ग़म नहीं था, जान देने के लिए भी कहता, तो वह ख़ुशी-ख़ुशी दे देती। उसे क्या हो गया था? मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसा भी होगा… लेकिन जानते हो, सीधी गाय ही खेत चरती है… और इस तरह पूरे तीन वर्ष बीत गए।”

“माया का चक्कर था!” बहुत देर हृदयनारायण अपने को ज़ब्त किए हुए थे, मौक़ा पाकर उन्होंने अपनी सम्मति प्रकट कर दी।

“मामूली चक्कर था? मुझे घर-गृहस्थी, बाल-बच्चों, किसी की कुछ परवाह नहीं थी। जानता था, गाँव वाले खुसुर-पुसुर करते, पर मुझसे सभी काँपते, मेरी प्रजा जो थे। रुपए के बल से भुलई का मुँह बंद था। फिर अँजोरिया किसी की नहीं सुनती। उसकी शादी हो गई थी, उसका पति अभी बच्चा ही था और एक बार ससुराल जाकर दो ही दिन में वह भाग आयी थी। उसका यौवन गदरा गया था। …ये तीन वर्ष नशे में बीत गए थे… और एक दिन उसने क्या कहा जानते हो?” प्रश्न-सूचक दृष्टि से उन्होंने हृदय नारायण की ओर देखा और बोले, “बरसात की काली अँधेरी रात थी। वह आयी। बहुत दुखी और उदास दिखायी दे रही थी। मैंने कारण पूछा। उसने मिन्नत भरे स्वर में कहा, “मुझे लेकर कहीं भाग चलो!” उसकी लम्बी, काली आँखें मेरी आँखों में खो गई थीं।

“क्या बात है?” मैंने पूछा।

“नहीं, मैं यहाँ नहीं रहूँगी।” उसने मचलते हुए से कहा, “लोग न मालूम कैसी-कैसी बातें कहते हैं। …कोई ठीक से नहीं बोलता… मुझे काशी ले चलो, वहाँ कोई मकान ले लेना, मैं उसी में रहा करूँगी।”

“उसने गाँव के बालकृष्ण मिश्र का उदाहरण दिया, जिन्होंने अपनी प्रेमिका के लिए बनारस में एक मकान ख़रीद दिया था और ख़ुद अक्सर वहीं रहते थे। उसकी बात से मैं चौंका और घबरा गया। मैंने उसे समझाने की कोशिश की कि जब तक मैं ज़िन्दा हूँ, उसको डरने की ज़रूरत नहीं, उसका कोई बाल-बाँका नहीं कर सकता, वह लोगों के नाम बताए, मैं उनकी खाल खिंचवा लूँगा। पर वह कुछ बोली नहीं और रोने लगी। …कुछ दिनों बाद उसने कहा, मुझे रखैल रख लो, मैं कहीं नहीं जाऊँगी, तुमको छोड़कर मुझे कुछ अच्छा नहीं लगेगा। …मैं बहुत हैरत में था। आख़िर वह क्या चाहती थी? तीन वर्ष तक उसने कोई ऐसा सवाल नहीं उठाया, अब कौन-सी ऐसी बात हो गई थी?”

“जब वह चली गई, तो मैं देर तक सोचता रहा। अब देखिए, अचानक मुझमें क्या परिवर्तन होता है! …भैया, ऐसा लगा कि मेरे दिमाग़ में एक रोशनी जल उठी है। सब कुछ साफ़ होता गया। मेरे अंदर कोई कह रहा था, नवलकिशोर, तुम आज तक शैतान के चक्कर में रहे, वही शैतान तुम्हारी इज़्ज़त, ज़मीन-जायदाद, बाल-बच्चे, सभी कुछ छीनकर तुम्हें बरबाद करना चाहता है। …और बात सच थी। तुम्हीं बताओ, हृदयनारायण, एक फ़ाहशा औरत में ऐसी ईमानदारी और लगाव का कारण क्या हो सकता है? अपने रूप के जादू से मुझे वश में किया, फिर अपना प्यार जताकर मुझे उल्लू बनाती रही… माया का असली रूप यहीं देख सकते हो… तो मैं ज्यों-ज्यों सोचता गया, मुझमें उस औरत के लिए नफ़रत-सी भरती गई। मैं देर तक पश्चात्ताप की आग में जलता रहा और रोता रहा…”

“यही भगवान है!” हृदयनारायण का मुख उत्तेजना से चमक रहा था।

“और किसको भगवान कहा जाता है”, रायसाहब छूटते ही बोले, “तुमने देखा, मेरे जैसा नीच कोई नहीं होगा, पर उनकी कृपा से सारी नीचता छूमंतर करके भाग गई। अब मेरा हृदय एकदम पवित्र था। मैं चाहता था कि उस लड़की से किसी तरह छुटकारा मिले। पर उसके सामने कुछ कहने की हिम्मत नहीं होती थी। और एक रोज़, भैया, मैंने सोचा कि अभी तक मुझ पर शैतान का असर है। जब तक मैं यहाँ से टलता नहीं, वह ख़त्म नहीं होने का। …तुम समझ रहे हो न? सब भगवान सोचवा रहा था… अब देखिए कि मैं एक रोज़ वहाँ से चुपके से घर के लिए रवाना हो जाता हूँ! …फिर मैं वहाँ कभी नहीं गया। अपने भाई और लड़कों को भेजता रहा…” कुछ देर तक वे चुप रहे जैसे कोई मंज़िल तय कर ली हो। फिर गहरी साँस छोड़कर बोले, “तब से मेरा जीवन ही बदल गया। …अब सारा जीवन सरकार के चरणों में अर्पित है। मैं अच्छी तरह समझ गया कि सब उन्हीं की लीला थी। वह चाहते थे कि मैं शैतान के चक्कर में फँसूँ, जिससे मेरी आँखें खुलें। अब मैं सवेरे नहा-धोकर चौकी पर पूजा करने बैठ जाता हूँ तो घंटों सुध-बुध नहीं रहती। शाम को भी ऐसा ही चलता है। चौबीसों घंटे मन उन्हीं में रमा रहता है।”

उनकी आँखें चमक रही थीं, “और तब से उसकी बड़ी कृपा रही। जानते हो, जब मैं बिहार से भाग आया, उसके कुछ ही दिनों बाद ज़मींदारी टूटी थी। मैंने दौड़-धूप की, रुपए ख़र्च किए और किसी तरह क़रीब पचहत्तर बीघे ज़मीन ख़ुदकाश्त करवा ली। बताओ, अगर उसकी दया न होती, तो सारी ज़मीन चली न जाती? कहाँ तक गिनाऊँ? छोटा लड़का आवारा निकला जा रहा था, मैंने मिल-मिलाकर दो-तीन ठेके दिलवा दिए… अब हज़ारों में पीटता है। बड़ा लड़का बनारस कमिश्नरी में वकील है। गाँव में आटा-चक्की और चीनी का कारख़ाना खुल गया है। पिछले साल से पंचायत का सभापति भी हो गया हूँ… सच पूछो तो रोब-दाब में कमी नहीं आयी है। और यह किसकी बदौलत? सब सरकार की कृपा का फल है।” वे कुछ उदास से हो गए, “तुम्हारी दुआ से मुझे किसी बात की कमी नहीं, ज़मीन-जायदाद, बाग़-बग़ीचे, इज़्ज़त-आबरू, बाल-बच्चे सब कुछ है… पर सच कहता हूँ मुझे किसी से कोई मतलब नहीं। भैया, इस जीवन में कोई सार नहीं…”

वह सहसा चुप हो गए और उनकी दृष्टि शून्य में खो गई। अँधेरे में पलाश के फूल विहँस रहे थे।

अमरकान्त की कहानी 'लड़का-लड़की'

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अमरकान्त
अमरकांत (1925 - 17 फ़रवरी 2014) हिंदी कथा साहित्य में प्रेमचंद के बाद यथार्थवादी धारा के प्रमुख कहानीकार थे। यशपाल उन्हें गोर्की कहा करते थे।