‘Palash Ke Phool’, a poem by Prita Arvind
जंगल में पलाश के पेड़ पर
फूल लग गए हैं, यह किसी को
बताना नहीं पड़ता क्यूंकि
पलाश के फूल जब खिलते हैं
तो पूरे दिल ओ जान से
पेड़ पर केवल फूल ही फूल
दिखते हैं, पत्ता नहीं दिखता।
जंगल के लोग जब प्रेम करते हैं
या विद्रोह करते हैं तो
पलाश के फूल की तरह,
बालकनी के गमले में लगे
गुलाब की कली की तरह नहीं,
उनके प्रेम या विद्रोह में
किसी मिलावट की,
किसी कोर कसर की
गुंजाइश नहीं रहती।
पलाश के फूल को खिलते वक़्त
चिन्ता नहीं होती कि वे शाम को
जब ज़मीन पर गिरेंगे
तब रास्ते पर चल रहे
मदमत्त हाथियों के पैर तले
कुचल दिए जाएँगे,
उन्हें प्रेमिका के बालों में
गूँथा नहीं जाएगा…
जंगल के लोगों के
प्रेम और विद्रोह की
भी यही नियति होगी शायद
पर इस कारण पलाश के फूल
खिलना बन्द नहीं करेंगे
अगले साल पलाश के फूल
फिर लगेंगे उसी शिद्दत के साथ
और वे आसमान में चांडाल की
तरह चमक रहे सूरज की
आँख में आँख डालकर
अपनी बात कहना भी नहीं छोड़ेंगे
इस साल, अगले साल और
फिर अगले के अगले साल!
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