कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं
सीमित उर में चिर असीम
सौन्दर्य समा न सका
बीन मुग्ध बेसुथ कुरंग
मन रोके नहीं रुका
यों तो कई बार पी-पीकर
जी भर गया छका
एक बूँद थी किन्तु
कि जिसकी तृष्णा नहीं मरी
कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं
कई बार दुर्बल मन पिछली
कथा भूल बैठा
हर पुरानी, विजय समझकर
इतराया ऐंठा
अन्दर ही अन्दर था लेकिन
एक चोर पैठा
एक झलक में झुलसी मधु स्मृति
फिर हो गयी हरी
कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं
शब्द, रूप, रस, गंध तुम्हारी
कण-कण में बिखरी
मिलन साँझ की लाज सुनहरी
ऊषा बन निखरी
हाय गूँथने के ही क्रम में
कलिका खिली झरी
भर-भर हारी किन्तु रह गयी
रीती ही गगरी
कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं।
शिवमंगल सिंह सुमन की कविता 'मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार'