कुछ शब्द हैं जो अपमानित होने पर
स्वयं ही जीवन और भाषा से
बाहर चले जाते हैं
‘पवित्रता’ ऐसा ही एक शब्द है
जो अब व्यवहार में नहीं,
उसकी जाति के शब्द
अब ढूँढे नहीं मिलते
हवा, पानी, मिट्टी तक में
ऐसा कोई जीता-जागता उदहारण
दिखायी नहीं देता आजकल
जो सिद्ध और प्रमाणित कर सके
उस शब्द की शत-प्रतिशत शुद्धता को!
ऐसा ही एक शब्द था ‘शांति’
अब विलिप्त हो चुका उसका वंश;
कहीं नहीं दिखायी देती वह—
न आदमी के अंदर, न बाहर!
कहते हैं मृत्यु के बाद वह मिलती है
मुझे शक है—
हर ऐसी चीज़ पर
जो मृत्यु के बाद मिलती है…
शायद ‘प्रेम’ भी ऐसा ही एक शब्द है, जिसकी अब
यादें भर बची हैं कविता की भाषा में…
ज़िन्दगी से पलायन करते जा रहे हैं
ऐसे तमाम तिरस्कृत शब्द
जो कभी उसका गौरव थे…
वे कहाँ चले जाते हैं
हमारे जीवन को छोड़ने के बाद?
शायद वे एकांतवासी हो जाते हैं
और अपने को इतना अकेला कर लेते हैं
कि फिर उन तक कोई भाषा पहुँच नहीं पाती।
कुँवर नारायण की कविता 'अबकी अगर लौटा तो'