1

जितनी बारिश
मुझ पर बरसी,
उतना ही पानी
सहेजे रखा

जितना भी पानी
जड़ों से खींचा,
उतना ही
बादलों को दिया

जितना भी दे पाया
बादलों को.
उतनी ही बारिश
तुम पर भी बरसी

सहेजा गया
और दिया गया
सब, तुम्हारे लिए है!

2

हम ऐसे पेड़ हैं
जिनके पैरों तले
ज़मीन और जड़ें भी नहीं,
सूखी हुई बाहें हैं
उनमें पत्तियाँ भी नहीं,
हमारे सूखे हुए में भी
इतनी क्षमता नहीं कि
किसी ठण्डी देह को
आग दे सकें

जब हम ने अथाह
भागने की ज़िद पकड़ी थी,
तभी हम ने अपना
पेड़पन खो दिया था!

3

जितना एक पेड़ ज़मीं के ऊपर है
उतना ज़मीं के भीतर भी,
जितनी ज़मीं उसने बचाकर रखी
उतना आसमाँ भी!

4

किसी पेड़ ने हमसे
कुछ नहीं माँगा
कभी भी!
हमने किसी पेड़ को
कुछ माँगने लायक़
नहीं छोड़ा
कभी भी!

5

कोई भी ख़ाली चीज़
देखता हूँ तो सोचता हूँ…
इसमें पौधा लगाया जा सकता है या नहीं?

सोचता हूँ
वह आदमी कितना ख़ाली होगा
जो पेड़ काटने के बारे में सोचता होगा!

6

सूखे पेड़
सूखी पत्तियाँ
हरा कुछ भी नहीं,
बचा हुआ हरा भी
सूखे में शामिल है!

हरा इतना सूखा है
जितना कुल्हाड़ी का दस्ता!

7

जैसे उनका हुनर है
परिंदों के पर काट देने का,
वैसे ही बड़ी कुशलता से
वे पेड़ों के पैर काट देते हैं!

Recommended Book:

मुदित श्रीवास्तव
मुदित श्रीवास्तव भोपाल में रहते हैं। उन्होंने सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है और कॉलेज में सहायक प्राध्यापक भी रहे हैं। साहित्य से लगाव के कारण बाल पत्रिका ‘इकतारा’ से जुड़े हैं और अभी द्विमासी पत्रिका ‘साइकिल’ के लिये कहानियाँ भी लिखते हैं। इसके अलावा मुदित को फोटोग्राफी और रंगमंच में रुचि है।