पीठ पर पहाड़ ढोते आदमी की उपमा पढ़कर
छुटपन से ही
मुझे हमेशा याद आयी
पिता की तनी हुई रीढ़
पिता की पीठ पर
ज्येष्ठ पुत्र होने के सम्मान में
अपने पिता से विरासत में मिला पहाड़ था
अपने पिता के जाने के बाद
पिता
पिता हो गए थे
जवानी की दहलीज़ के दोनों ओर खड़े छोटे-बहन भाइयों के
पिता के काम पर से लौटने के समय
एक अघोषित व्यवस्था उतर आती थी
आँगन में
छोटा किताबों के संग
और बड़ा चारे की मशीन के हत्थे से जूझता मिलता,
बहन पीतल की लिश्कती थाली दो बार पोंछती
दुपट्टे से
और माँ
घी से तर बूरा की कटोरी रखती
थाली में अंदर की ओर
जो कभी ख़ाली नहीं हो पाती थी
और स्थानांतरित हो जाती थी
छोटे पढ़ाकू की थाली में
थाली पर बैठे,
दिन-भर की ख़बरों का जायजा लेते पिता,
इतने पिता थे अपने अनुजों के
कि कभी आँख-भर नहीं देखा
चूल्हे की लपट के पार
हल्के घूँघट में
जुगनू-सी चमकती
एक जोड़ी आँखों को,
कभी नहीं दुलारा
दादी की गोद में ऊँघती
पाँच बरस की गौरैया-सी
बच्ची को,
उस वक़्त पिता की तनी रीढ़ पर रखा
भरकम पहाड़
साफ़ दिखता था मुझे
मगर देर रात चौपाल से लौटकर,
तारों की ठण्डक तले
जब घूक सोयी बच्ची की पेशानी चूमते पिता
तो रुई-सा हल्का हो जाता था
पिता की पीठ का पहाड़
बहुत प्रकार के जादूगर आते थे
दादी की कहानियों में
पर पहाड़ को रुई में बदलने का जादू
आज भी सिर्फ़ पिता को आता
है…