जमाकर देखता हूँ जब
जीवन सफर क्रम से..
पितरों के प्रतापों से पनपते
वंश की गहरी जड़ों से..
बन चुके वटवृक्ष के
शिखर सम से…
उम्र महकती है
अभी भी बालपन से..
माँ की रसोई
और पिता के
असीम श्रम से…
खेल गलियों, गोलियों
और गिल्लियों से..
क़लम-दवात
और पुस्तकों के
पाठ्यक्रम से…
मन के बदलते माप
और तन के बदलते
तापक्रम से..
कालक्रम के
श्रेष्ठ कल से
आज के अपने अहम् से
जमाकर देखता हूँ जब
जीवन सफर क्रम से..
बस उत्कृष्ट दमकता है
पिता का हर चरम से
〽️
©️ मनोज मीक