किसी अधलिखी चिट्ठी की तरह चले गए पिता
सब कुछ बाक़ी रह गया धरा का धरा
अब वह कभी पूरा नहीं हो पाएगा
वो स्याही सूख रही है जिससे लिखते थे वे
पानी का गिलास धीरे-धीरे काला पड़ता जा रहा है
उनकी कुर्सी पर रोज़ पहले से अधिक धूल भर जाती है
जबकि रोज़ पोंछा जाता है उसे
हर चीज़ जो उनके छूने भर से ज़िन्दा हो जाती थी
इन दिनों वह सब मरती हुई दिखायी देती है
ये शोक है या ग़ुस्सा उन चीज़ों का
पता नहीं
लेकिन इतना ज़रूर है
कि घर की हर ईंट की रंगत उतर गई है
मैं रोता हूँ तो थककर चुप हो जाता हूँ
उनकी डायरी का रोना तो दिखता भी नहीं
उनके लिखे और कहे की आवाज़ दिन-रात गूँजती है
बस एक काँपती और कलपती हुई आवाज़
जैसे कोई घसीटकर ले जा रहा हो उन्हें
और वे हैं कि छोड़कर जाना नहीं चाहते!
ज्ञानरंजन की कहानी 'पिता'