घर

तमाम धर्म ग्रंथों से पवित्र
ईश्वर और अल्लाह से बड़ा
दैर-ओ-हरम से उम्दा
लुप्त हो चुकी महान सभ्यताओं से आला
दुनिया का सबसे ख़ूबसूरत शब्द
मैं कहूँगा—घर!

माँ की गोद-सा गर्म और मुलायम
पिता के हाथों-सा भरा पूरा
कभी न भूले जा सकने वाले
पहले चुम्बन-सा अविस्मरणीय शब्द
मैं कहूँगा—घर!

हवाएँ जहाँ मन-मन मुस्काती हैं
बदरा जहाँ मुक्त-छंद सा बरसते
झूम-झूम कोई राग गाते हैं
दीवारें एक-दूजे से खिलंदड़ी करना
जहाँ कभी नहीं भूलती
मैं कहूँगा—घर!

सुबह जहाँ बच्चे-सी मासूम और
शाम फ़िरौज़ी मालूम जान पड़ती है
आफ़ताब पूरी शिद्दत से जहाँ रौशन करता है
अभी भी आँगन का एक-एक क़तरा
मैं कहूँगा—घर!

यह जानते हुए कि—
बम-बारूद
गोली-बन्दूक़
तोप-गोलों से भरी तुम्हारी इस
दोमुँही बदरंग दुनिया में नहीं बच सकेगा
किसी सीरियाई-फ़िलिस्तीनी बच्चे के
रंगीन ख़्वाबों सा-घर

बावजूद इसके कि कहना व्यर्थ है
लुत्फे-सुख़न, शाखे-समरवर सा
दुनिया का सबसे ख़ूबसूरत शब्द
मैं कहूँगा—घर!

तुम्हारा साथ

तुम्हारा साथ
पेड़ की डाल पर झूल रहे
उस तूँबीनुमा घोंसले जैसा है
जिसे गूँथा है बया ने बड़ी चाह से

लहराती-इठलाती फ़सल जैसा है
जिसे बोया है दहक़ाँ ने बड़ी मशक्क़त से

तुम्हारा साथ
उस क्यारी जैसा है
जिसे रोपा है माली ने बड़े क़रीने से

गंगा-जमुनी तहज़ीब जैसा है
गाहे-बगाहे दी जाती हैं
अब भी मिसालें जिसकी

तुम्हारा साथ
अल्हड़ बहती नदी को
बिना तैरे पार करने जैसा है

एक उदास शाम
इंडियन कॉफ़ी हाउस में बैठ
अनपढ़ी किताबों को पढ़ने जैसा है

तुम्हारा साथ
जाम में फँसे यमुना-पार के मज़दूरों का
पुरानी दिल्ली से
घर जल्दी पहुँचने की ललक जैसा है

ताउम्र किरीटी-तरु से
वीणा बनाने वाले वज्रकीर्ति की
हठ-साधना जैसा है

तुम्हारा साथ
कबीर की उलटबाँसी, तुलसी की चौपाई
ख़य्यामकी रुबाई, ख़ुसरो की पहेली
और नीरज के गीत जैसा है

पाश, लोर्का, मीर, ग़ालिब
मोमिन, दाग़ की
कविता-ग़ज़ल जैसा है

जो उतर जाती हैं
कहीं गहरे
कहे-अनकहे।

कवि केदारनाथ सिंह की स्मृति में

आना…
जैसे आता है वसंत
पेड़ों पर ख़िज़ाँ के बाद
आते हैं माह
आषाढ़, सावन, भादो

ऋतुएँ—मसलन
वर्षा, शरद, हेमंत, शिशिर

आना…
जैसे आता है
आम पर बौर
नीम पर निबोली
गेहूँ में दूध
दरिया में रवानी

आना…
किसी झिलमिल रंग की
स्वप्निल छवि की तरह
मानिन्दे-बूए-गुल की तरह
गौहरे-शबनम की तरह

आना
जैसे आती है भोर
धीरे-धीरे आँचल पसारे

आना…
जैसे आती है बुद्ध के चेहरे पर मुस्कान
आता है माधुर्य
नेरुदा-नाज़िम की किसी प्रेम कविता में

आना…
कुछ इस तरह आना
आते हैं जैसे लौटकर
थके-हारे पक्षी
नील-गगन से पृथ्वी पर
यह बताने कि
आना
जाने से
कहीं ज़्यादा बेहतर है।

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आमिर
हंस, स्त्रीकाल, चौपाल, कथादेश, मधुमती, अभिनव इमरोज़, अहा! ज़िंदगी, समकालीन जनमत, पोषम पा, हस्ताक्षर, प्रभात ख़बर (पटना और रांची) आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।उर्दू के प्रगतिशील शा'यर ज़फ़र गोरखपुरी के दोहों और निदा फ़ाज़ली की कुछ चुनिंदा नज़्मों का उर्दू से हिन्दी में अनुवाद।फोटोग्राफी, चित्रकला और सिनेमा में विशेष रूचि।संपर्क : [email protected]

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