Poems: Ankit Kumar Bhagat

प्रतिरोध

काले गुलाब
और स्याह परछाइयों के बाद,
कालिख पुती दीवारें
इस दौर की विशेषताएँ हैं।
अँधेरा गहराता ही जाता है,
कि असहमतियों को आज़माने की
इजाज़त नहीं यहाँ।

विद्रोह के सभी प्रतिनिधि
पर्दे के पीछे कर दिए गए हैं,
क्रूर-काल की
काली गहरी कोठरियाँ
भर दी गई हैं
विरोध की आवाज़ों से,
और हर उस कोंपल की
सम्भावना को नकार दिया गया है,
फूट सकते हैं
जहाँ से
कई रक्तिम गुलाब।
‘गेरूए’ और ‘लाल’ के अभ्यांतर
‘काला’ रंग संदर्भित है!

किंतु जंगलों में
अब भी खिल रहे हैं-
नये-नये,
ज्वलंत लाल पलाश।
कि प्रतिरोध ज़िंदा रहता है
आदमी के स्वभाव में,
मनुष्य की आत्मा
सहेजती है
स्वर्ण-स्फुलिंग के अंश।
कि संघर्ष की इबारतें
नहीं मिटतीं कभी,
कि क्रांति के अवशेष
सदा बचे रहते हैं।

लम्बी रातों के बाद-
प्राची के अरुणाभ क्षितिज
की निश्चितता से
इंकार नहीं किया जा सकता।
मेघ-संकुल आसमान के पीछे;
स्वच्छंद विचरण करता है
स्वर्णिम-रश्मियों पर रथारूढ़
‘दिनकर’ का ‘परम तेज’।

सुनो राष्ट्रवाद है

सुनो, राष्ट्रवाद है!
राष्ट्र है कि आदमी
कि आदमी का ख़्वाब है।
सुनो राष्ट्रवाद है।

जाति की चर्चा चुनावों का ख़र्चा है,
नोटों की देन है, वोटों का लेन है।
भीड़ बेमिसाल है, आदमी बेहाल है,
दक्षों की राय है कि आर्थिक ढलान है।
नारों की होड़ है, दावों का झाड़ है,
अँधों की बस्ती में नया सब जुगाड़ है।

गाँधी की धरती पर
मज़हब उन्माद है।
सुनो, राष्ट्रवाद है!
राष्ट्र है कि आदमी
कि आदमी का ख़्वाब है।
सुनो राष्ट्रवाद है।

किसान परेशान हैं, छात्र सरेआम हैं,
महिला की आबरू बाबाओं के नाम है।
सत्ता के शासी पर विपक्ष नाकाम है,
भूख की फेहरिस्त एक नया मक़ाम है।
देश की छाती पर ज़ख़्म बड़ा गहरा है,
कहते हैं आँकड़ों पर बैठा एक पहरा है।

प्रश्नों से तोलो तो,
हक़ में ना बोलो तो,
…होता जिहाद है।
सुनो, राष्ट्रवाद है!
राष्ट्र है कि आदमी
कि आदमी का ख़्वाब है।
सुनो राष्ट्रवाद है।

नए प्रारूप में बिसात घमासान है,
मूल्यों का क्षय है, कुर्सी का मान है।
अख़बार भी कहते अब अदबी ज़बान हैं,
बहसों में होता अब सत्ता का गान है।
न्याय की वेदी पर ‘धार्मिक’ संधान है,
संसद से सड़कों तक स्खलित ‘विधान’ है।

लोक के तंत्र में
विलुप्त संवाद है।
सुनो, राष्ट्रवाद है!

सुनो, राष्ट्रवाद है!
राष्ट्र की हो अवनति
तो आदमी का ह्रास है,
राष्ट्र के हित है समाहित
आदमी का त्राण साधित।
“राष्ट्र मर्यादित रहे”-
क्या तर्क लाजवाब है!
राष्ट्र है कि आदमी
कि आदमी का ख़्वाब है।
सुनो राष्ट्रवाद है।

आवाज़

जादुई आवाज़ों की चीख़-पुकार
से उद्विग्न हो ‘मन’
‘सूनेपन का साथी’ पुकारता है।
उन्नति की जल्दबाज़ी में
‘घाटी की तल्लीनता’ निहारता है।
आवेगों के दर्पण में,
आत्मीयता के निर्जन में,
‘मौन का समर्पण’ तलाशता है।
और पाता है…
वही पुरानी मोड़दार सड़क,
जो आगे धुँधलके में
हो जाती है विलीन।
झिंगुरी आवरण में लिपटी
दरख़्तों से झाँकती ख़ामोशी,
अनजाने डर के साये में पली
श्वेत-श्याम स्मृति…
सब कुछ पूर्ववत हो जाने की आशा से
बँधी असुरक्षित सम्भावना।
झाड़ियों की ओट ले
पसरा अँधेरा,
…गहरा सन्नाटा!

किंतु यथावत है,
चित्त को चंचलतर करती
पड़ती मांदर की थाप…
किंतु चिरंतन है,
क्षीण होती
तुम्हारे पाज़ेब की झनकार!
.
.
वाक़ई तस्वीरें बोलती हैं।

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अंकित कुमार भगत
Completed secondary education from Netarhat Vidyalaya and secured state 3rd rank in 10th board,currently persuing B.A. in Hindi literature from IGNOU. Interested in literature,art works like painting and scketching and occasionally play mouth organ..