Poems: Anubhuti Gupta

मैं भी : स्त्री की आकांक्षाएँ

हँसना चाहती हूँ मैं भी,
बिना किसी रोक-टोक के

सुनना चाहती हूँ मैं भी,
सागर का कलरव
नदियों की कल-कल ध्वनि
चिड़ियों का चहचहाना
हवाओं की ‘साँय-साँय’

देखना चाहती हूँ मैं भी,
लताओं का इठलाना
पत्तों का झूमना
बादलों का बरसना
पंछियों का उड़ना

कहना चाहती हूँ मैं भी,
अपरिचित पीड़ा
प्रदीप्त वेदना
और-
मेरी मौलिक
विलुप्त आकांक्षाएँ।

हँसमुख दम्पति

डूब जाता है
स्नेह का सूरज
पलभर में
इक सुनहरी किरण की
तलाश में,

बरसों तक…
जिन बच्चों को
धरा रूपी माता ने
अपनी गोद में ममता से
सहेजे रखा था
वही उसे बेसहारा
दर-बदर ठोकर खाने को
छोड़ देते हैं

वक़्त के थपेड़े पड़ने पर
जिस पिता की
छाँव में रहा
जिन बच्चों का कोमल मन
अब-
वे ही परायेपन से देखते हैं

कैसे ‘हँसमुख दम्पति’
अपनी लाचारी पर हँसते हैं
अकेलेपन की खिड़की से
उदासी सूरज की तकते हैं।

माँ क्या होती है

भीगी आँखों को मेरी
जो पोछती है,
मेरे अशान्त अन्तर्मन को
टटोलती है।
हर पहर का आरम्भ,
मेरे मन की आस,
प्यारी न्यारी
वह माँ होती है।

जो धूप में छाँव दे
मेरे मन को,
जो गोद में भर ले
मेरे तन को।
जो ख़ुद
नम धरती पर सोये,
मेरे ग़म के
हर अश्क को धोये।

गिरती हूँ तो
थामने को माँ होती है,
रात की तन्हाई में
साथ माँ होती है।
अपनी रोटी
मेरी थाली में सरकाये,
मैं पेटभर जब खाऊँ
वह मुस्कुराये।

नयनों में
शीतल धारा जैसी,
गगन में
चमकीले तारा जैसी।
मेरी हकलाती ज़ुबाँ को
शब्द देती है,
माँ, हर गिरते शब्द को
थाम लेती है।

मेरे आँसुओं को
आँचल में पिरोती है,
माँ संसार में
सबसे अनमोल होती है।
अब किन शब्दों में बयाँ करूँ,
कि- माँ क्या होती है?

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