द्वारका भारती पंजाबी भाषा के सुपरिचित कवि, लेखक व उपन्यासकार हैं और पिछले कई सालों से पंजाबी दलित साहित्य आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे हैं। उनका उपन्यास ‘मोची—एक मोची का अदबी ज़िन्दगीनामा’ और कविता ‘आज का एकलव्य’ हिन्दी में भी काफ़ी चर्चित रहे हैं। प्रस्तुत कविताएँ पोषम पा के लिए स्वयं द्वारका भारती जी ने चयन करके भेजी हैं, उसके लिए उनका बहुत बहुत आभार।

जाति

मुझसे मत कहना कि तुम्हें
बहुत बड़ा इनसान बना दूँगा
किसी और के कंधों पर बिठा
नये शिखर दिखा दूँगा
किसी बड़े शहर की बड़ी इमारत
तुम्हारे नाम लगा दूँगा
दौलत के बड़े अम्बार पर
तुम्हारी खटिया बिछा दूँगा
यदि कर सको तो मेरी हालत देख
बस इतना ही कर देना
सदियों से मेरे साथ चिपकी
मेरी जाति हटा देना।

उदास कविता

चाहता हूँ कि कविता लिखूँ
(क्षमा करें, वाजपेयी मार्का नहीं)
एक आग उगलती कविता
अंधों की चिराग़ कविता
उन लोगों के लिए
जो कविता के अर्थ तो नहीं समझते
लेकिन उनका जीवन एक कविता होती है
एक बहुत लम्बी कविता
और बहुत ही उदास कविता
एक बेआस कविता
बर्फ़-सी सिल्ली कविता
पीले पत्तों-सी झड़ती
पतझड़-सी अहसास कविता
रेत-सी गर्म
पश्चिम की हवाओं-सी सर्द
मरुस्थल में उड़ती रेत की तरह
मृगतृष्णा-सी दरिया कविता
अंधड़-सी उठती
बिजली-सी कड़कती
पेड़ों की मानिंद अटल
पत्थर-सी स्थिर
शब्दों में पिघलती कविता
आँखों से बहती कविता
किसी नंगे पहाड़ पर खड़ी
काँटों की झाड़-सी कविता
बहुत दिनों से चाहता हूँ
कि लिखूँ एक ऐसी ही उदास कविता।

रथ-यात्रा

उसके ईश्वर की रथ-यात्रा
वहाँ से शुरू होती है
जहाँ से मानवता ख़त्म होती है
मनुष्य बँट जाता है
असंख्य भागों में

रथ के भयानक पहिए घूमते हैं
कुचलकर निकल जाते हैं
करोड़ों असहाय हिन्दवासियों की
अस्मिता को

वे अतीत की पगडण्डियाँ
जिन्हें वक़्त की धूल ने
मिटाने की कोशिश की थी
फिर उभर आती हैं
धरती की छाती पर
मूँग दलता हुआ
रथ आगे बढ़ता जाता है
अवशेष के अँधेरों में

भारत का आकार
बौना होकर सिमट जाता है
और प्रतीक्षा होती है
एक और रथ-यात्रा की?

क़लम

मैं शहर की हर ऊँची दीवार पर
यह लिखकर रहूँगा कि
अगर तुम मुर्दों को जगह नहीं दे सकते
रोते हुए को हँसा नहीं सकते
तो अपनी क़लम के कई टुकड़े करके
धरती के नीचे दफ़न कर दो
इंसाफ़ का क़त्ल होता देख
अपनी बाज़ जैसी आँखों को
तुम कबूतर बना लेते हो
समय आने पर अपने कटखने विचारों को
अपने बिस्तर का तकिया बना लेते हो
तो मैं आपको यह राय देने में गुरेज़ नहीं करूँगा
कि अपने लेखक होने के अहसास को
जंगल की आग के सुपुर्द कर दो
क़लम तलवार होती है
होती होगी
क्योंकि म्यान में पड़ा हथियार
और जेब में औंधे मुँह पड़ी क़लम
एक अजायबघर से ज़्यादा तो कुछ नहीं!

क्या यह कविता आपके लिए है?

दूर किसी मन्दिर में टनटनाते घड़ियाल को सुन
क्या आपको घिन नहीं होती?
चलती सड़क को बन्द कर, बनाए शामियानों में
फ़िल्मी तर्ज़ों पर गूँजते भजननुमा शोर को सुन
क्या आपका पूरा वजूद भिन्नाता नहीं?
किसी राजनैतिक गुण्डे के घर
लटकी महान व्यक्ति की तस्वीर को ताक
क्या आपकी भृकुटियाँ तनती नहीं?
किसी शातिर के माथे पर लगे
लम्बे से तिलक को देख
आपका हाथ अपनी पिस्टल पर नहीं जाता?
तपती धूप में रिक्शा को खींचते
मैले-कुचैले बूढ़े व्यक्ति को देख
आपके माथे पर पसीने की बूँदें नहीं छलछला आतीं?
क्या आपकी क़लम की नोक
ज़हरीले बिच्छुओं का पेट चाक नहीं कर सकती?
जब कोई क़ातिल अँधेरों का क़त्ल करके
आपके सामने से गुज़रता है तो
क्या आपका माथा श्रद्धा से नहीं झुकता?
अगर इन सब प्रश्नों का उत्तर
‘न’ में है तो
क्षमा करें
यह भरी पूरी कविता आपके लिए तो कदापि नहीं हो सकती।

नुक्कड़ वाला मोची

(अनुवाद: राजेन्द्र तिवारी)

मेरे मुहल्ले की नुक्कड़ पर बैठने वाला मोची
अपनी जादू की पुरानी-सी पिटारी में से
मोम की एक छोटी-सी ढेली
धागे की एक उजली गुच्छी
राँपी, हथौड़ी
और एक अदद कुण्डी
बाहर निकाल अपनी छोटी-सी
पत्थर की सिल पर धरता है
मिट्टी की काली-सी कुण्डी में से
पानी की कुछ बूँदें लेकर
पत्थर के इर्द-गिर्द छिड़कता है
बिना पत्तों के दरख़्त की तरह
अपना कमज़ोर-सा वजूद
वर्षों पुराने इस पीपल तले
ला धरता है
घृणा के सैलाब को
अपनी कमज़ोर-सी देह पर
सारा दिन झेलते
उसे देखा है मैंने
बदबूदार जूतियों को
अपनी काठ-सी सख़्त उँगलियों में जकड़
उसमें ज़ंग लगी कीलें
ठोकता हुआ
शहर के चौराहे पर लगे
भुरभुराए बुत-सा लगता
मक्खियों की भिन-भिन
उसके कानों में
इक्कीसवीं सदी का संदेशा
सुनाती लगती है
काली सड़क पर भागती
चमकती कार का फ़र्राटा
ढेरों धुएँ के कण
उसके अधपके बालों में पिरो देता है
घुटनों के पास पड़े
पुरानी जूतियों के ढेर
में से वह
एक कतरन काटकर
बहुत सलीक़े के साथ
अपने हाथों में ली हुई
जूती के तल्ले में हुए सूराख को
ढकने के प्रयत्न में
पसीने-पसीने हुआ
जैसे इस देश की संस्कृति
बचाने में जुटा हुआ
बिना सिर बाँहों वाली
रोम की जर्जर प्रतिमा
से कम नहीं लगता मुझे
यह नुक्कड़ वाला मोची।

यह पाठ्य-पुस्तकें

(अनुवाद: राजेन्द्र तिवारी)

वर्षों पहले
हम अपनी भद्दी-सी दिखने वाली
पाठ्य-पुस्तकों में
यह पढ़ा करते थे—
मोची जूते बनाता है
कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाता है
जुलाहा कपड़ा बुनता है
सुनार आभूषण बनाता है
ठठेरा बर्तन बनाता है
बढ़ई खाट तैयार करता है
आज
सभी मोची जूते नहीं बनाते
कुम्हार मिट्टी नहीं मथते
जुलाहा हथकरघा नहीं चलाता
सुनार आभूषण नहीं बनाता
ठठेरे बर्तन नहीं कूटते
बढ़ई खाट नहीं बनाते
इस पर भी वे सभी
आज परिवर्तन को तरसते
मोची हैं
कुम्हार हैं
जुलाहे हैं
सुनार हैं
बढ़ई हैं
और आज भी
सुन्दर-सजीली ‘हाईटेक’
पाठ्य-पुस्तकों में
मज़े से जी रहे हैं!

मैल

वर्षों से जमी मैल
जब ढलती है कोरों से
लोग कहते हैं कि
अब के वर्ष
बरसात हुई है ज़ोरों से!

इंतज़ार

मन में था
कविता लिखूँगा
भूचाल ला दूँगा
आकाश में झूलते आदमख़ोर गिद्धों के
पंख नोच गर्द में उड़ा दूँगा
झुलसाती हुई लू को
बर्फ़ की सिल्ली में बदल दूँगा
अँधेरी-गहन गुफाओं में बेख़ौफ़ घुस जाऊँगा
अँधेरों को गर्दन से जकड़ खींच लाऊँगा
साँप की बल खाती देह को
शब्दों से तार-तार कर दूँगा
खोल दूँगा तमाम ज़ंग-खाए तारों को
निराशा के जबड़ों से खींच लाऊँगा
आशाओं के दम तोड़ते हुए चिराग़
खण्डहरों में बदल दूँगा ऊँची मीनारों को
यहाँ से उगते हैं कटखने सूरज
गिरा दूँगा यह भुटिया-सी दीवार
जिनके साये में
ज़र्द हो चुका है
जीवन का हर नग़मा
यदि आपकी कविता में भी
छिपी है यह तड़कती हुई दोपहर
तो मुझे शिद्दत से इंतज़ार है
आपकी इस कविता का
और
उसके अन्दर खौलते ज्वालामुखी की आँच का।

द्वारका भारती की कविता 'आज का एकलव्य'

किताब सुझाव:

द्वारका भारती
जन्म- 24 मार्च, 1949 द्वारका भारती पंजाबी भाषा के सुपरिचित कवि, लेखक व उपन्यासकार हैं और पिछले कई सालों से पंजाबी दलित साहित्य आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे हैं। उनका उपन्यास 'मोची—एक मोची का अदबी ज़िन्दगीनामा' और कविता 'आज का एकलव्य' हिन्दी में भी काफ़ी चर्चित रहे हैं।