मेरी हथेलियों में सारे रस्ते
वो मुस्कान लाने वाली एक पंक्ति कसमसाती रही

1

बाप के
झुके हुए काँधे
अंदर धँसते जा रहे गाल
माथे की फड़फड़ाती हुई नसों को देखकर
मैं परदे के पीछे ही रुका रहकर सोचता रहा
बचपन से ही जैसे कई परदे टँगे रहे हैं
उनकी ख़ुशी और उनके बीच
उनकी ख़ुशियों की तरह परदे के पीछे ही
रुका रहा हूँ मैं।

परदे के उस तरफ़ यह आदमी जो मेरा बाप है
या है अब दर्द से चरमराता हुआ कोई नया खण्डहर!
इनके हाथ हैं या किसी पहाड़ का कोई टुकड़ा
जिसपर इनका अल्लाह
किसी नदी का बहाव बहाना भूल गया
या हैं खुरदरी ज़मीन का कोई हिस्सा
जिसपर हमारे मुल्क की सरकार
फ़सल उगाना भूल गई
घास और फूल उगाना भूल गई
और उनकी ख़ुशियों की तरह
परदे के पीछे ही रुकी हुई है अभी तक।

2

सबकी तरह मैंने भी क्या किया है अभी तक
उनकी वेदना के लिए मेरी भाषा में
केवल कुछ बिखरे हुए शब्द हैं, एक पूरा वाक्य भी नहीं।

मिटा देनी चाहिए मुझे ऐसी भाषा जो बाप के लिए
चेहरे पर मुस्कान लाने वाली एक पंक्ति न बना पाए,
डूब जाना चाहिए कहीं गहरे में अपने मन की भाषा को लेकर
कि वह अभी तक वेदना का उत्सव ही बनाना जानती है
नितांत वेदना के लिए उसके पास कोई पंक्ति नहीं।

3

घर से लौटते हुए उन्हें
चेहरे पर मुस्कान लाने वाली एक पंक्ति देना चाहता था
पर परदे से झाँकते हुए जिस कुर्सी पर बैठे देखा उन्हें
वह आदमी मेरा बाप नहीं, राग मल्हार-सा लगा मुझे
जिसे कोई कंठ आकर गाएगा अभी और आसमान रो पड़ेगा।

जो अभी उठ खड़ा हुआ और चला आया मेरे पास
तो मेरे अंदर बावली नदी बनकर बहने लगेगा।

क्योंकि वह परदे के उस तरफ़ थे, आ नहीं सकते थे।
क्योंकि वह बैठे हैं उम्र की अतृप्त रेखाओं पर।
क्योंकि वह बैठे हैं कमज़ोर हो रही उम्मीदों के साथ।
क्योंकि वह बैठे हैं गुज़रे हुए दिनों का चिट्ठा लेकर
और बारी-बारी से पलट रहे हों जैसे चुपचाप अपने मन की प्रयोगशाला में,
ज़िन्दगी का कोई हिस्सा बदलने की चाह रहे हों जैसे, जिसे माथे की
दोनों भवों के बीच सिकुड़ती हुई जगह में देखा जा सकता था
और समझा जा सकता था
कि हर बाप अपनी दुनिया का वैज्ञानिक होता है।

4

मेरी हिम्मत नहीं हुई कि परदे के उस पार जा सकूँ,
सुन सकूँ उनके किए गए प्रयोगों को
मेरे क़दम चुप रहे मेरे होंठो की तरह
मेरी हिम्मत मर गयी
मेरे हाथ न उठे उनके पैरों की जानिब
जिन्हें दबाकर मैं वो एक मुस्कान वाली पंक्ति सुनाना चाहता था,
चाहता था कि इस बार जब लौटूँ
उनके पाँव की कुछ थकन अपनी हथेलियों में भरे हुए लौटूँ।

और…
घर से लौटते हुए मेरे पास सर पर रखे हुए
उनके हाथों के सिवा कुछ नहीं था।
उनके पाँव की थकन उनके पाँव में रही,
मेरी हथेलियों में सारे रस्ते
वो मुस्कान लाने वाली एक पंक्ति कसमसाती रही।

‘मुझे चाँद और गुलमोहर चाहिए’—यह अतिशयोक्ति हो सकती है
लेकिन जीने के लिए इससे हल्की पंक्ति और कोई नहीं।

1

मैं कहता था कि अनगिनत सदियाँ बँध आयी थीं हमारे बीच।
तुम्हारे जिस्म के हर हिस्से में
कई-कई शहरों के नक़्शे उतारे थे
मेरे जिस्म के हर मोड़ पर एक बेचैन नदी बहायी तुमने।
हम एक क़दम साथ चला करते थे
तो एक सदी पार कर जाते थे
पलक झपकते सारे प्रेमियों के सारे ब्रह्माण्ड नाप आते थे
जिस क़िले की मेहराबों से गुज़रते थे
क़दम हमारे, चूमकर उन्हें, मुरदार होने से बचा लेते थे

मैं करवट लेता था जिस ओर
तुम उभर आती थीं
मैं किशमिशी होंठो को चूमता था तुम्हारे
और हम कभी चिड़िया में बदल जाते थे
हम कभी दरगाह से उठती धूनी में बदल जाते थे
हम कभी बुझे हुए लैम्पपोस्ट में बदल जाते थे

अतिशयोक्ति भरा यह जीवन और जिया जा सकता था।

2

तुमने कहा कि कहते हैं एक दिन सब ख़त्म हो जाएगा
जीने की इच्छा से बड़ा कुछ नहीं,
जीने के लिए इससे हल्की पंक्तियाँ चाहिए होती हैं।

इसलिए याद होगा तुम्हें
मैंने तुम्हारी पीठ पर कई गुलमोहर बनाए हैं
तुमने कई चाँद की रातें मेरे सीने में उतारी हैं

सब ख़त्म हो जाने के बाद कोई इन्हें भी ले जाएगा हमसे?

तुम बस इतना करना अपनी पीठ से
एक फूल गुल्मोहर का बालों में लगाते रहना
मैं चाँद को बुन-बुनकर आँखों की पुतलियों में ढालती रहूँगी।

और..
और कुछ नहीं क्योंकि
जीने के लिए इससे हल्की पंक्तियाँ और कोई नहीं।

ग़ुलाम अब्बास की कहानी 'ये परी चेहरा लोग'

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