Poems: Faizan Khan
वजूद
ऊपरवाले के वजूद के लिए
लोगों ने तलवारें, बंदूक़ें उठायीं
बम बनाए
जंगें लड़ीं
क़त्ले-आम किया
और फिर यही सिलसिला चलता रहा
मैंने वजूद को नहीं माना
मैं नदियों में नहाया
फूलों को सूँघा
फलों को खाया
बच्चों और जानवरों के साथ खेला
जंगलों, रेगिस्तानों, पहाड़ों पर घूमा
और रात को पहाड़ पर
तारों की छाँव में
नींद लेकर सो गया,
कल का सूरज मन में लिए।
ख़रगोश
गर शक है मुझ पर
तो अपने आप से पूछ लो
या अपने इंसान से पूछ लो
नहीं गर ख़ुद पर भी यक़ीं
तो अपने भगवान् से पूछ लो
उठ गया हो यक़ीं
गर उस पर से भी
तो उस बच्चे की मुस्कान से पूछ लो
कहेगा वो भी यही
कि तुमने ही मारा है
उसके विश्वास को
जो हो गया था हवस में, बेनक़ाब वो
सर झुकाए ख़ुदा भी खड़ा था
जब आँसू ज़मीन से आसमान पर जाकर पड़ा था
हिल गया था सन्नाटा भी
कि मुझसे भी गुमसुम
ये कौन खड़ा था
था उल्टा वो शर्मिंदा
कि किया ये मैंने किस भेड़िये पर यक़ीन
क्या हर सदी ख़रगोश को ही मरना था?
जंगल को पहले से ये सब कुछ पता था
तो पहले से ही क्यों नहीं उस बच्चे को
ये शिक्षा में मिला था
जबकि हर बार यही इतिहास दोहराया जाता था
वो अंकल, वो चाचा, वो टीचर, वो भईया
वो साइकिल, वो स्कूटर, वो कोना, वो सोफ़ा
अब तो स्कूल की ड्रेस पर भी दाग़ लग गया था
फिर भी सारा जंगल सुनसान ही खड़ा था
थे लेटे सिर्फ़ दो, वो और ख़रगोश
अब तो वो उछालना भी भूल गया था
जैसे कि बिल ही बंद हो गया था
टेबल के नीचे दिमाग़ से कुछ कह रहा था
क्या तुमने वो सुना था?
मैं
उन्होंने बोला धर्म
मैंने बोला धर्म
उन्होंने बोली ज़ात
मैंने बोली ज़ात
उन्होंने दिखायी दुनिया
मैंने देखी दुनिया
उन्होंने बताये नियम
मैंने सुने नियम
उन्होंने कहा ये पढ़
मैंने लिया वही पढ़
उन्होंने कहा ये कमा
मैं लगा वही कमाने
उन्होंने बनाये रिश्ते
मैंने निभाये रिश्ते
उन्होंने कहा बनाओ घर
मैंने बनाया घर
उन्होंने कहा अब तुम बोलो
‘मैं’ बोलने से पहले क़ब्र में सो रहा था।