विस्मृति से पहले

मेरी हथेली को कैनवास समझ
जब बनाती हो तुम उस पर चिड़िया
मुझे लगता है
तुमने ख़ुद को उकेरा है
अपने अनभ्यस्त हाथों से।

चारदीवारी और एक छत से बने इस छोटे-से कमरे में
अपनी हथेली को निहारता हूँ
तुम्हें देखता हूँ
मुझे मेरा बचपन याद आता है।

पतंग उड़ाने का बहुत शौक़ रहा मुझे
कई बार मेरी पतंगें टकरायी हैं
आकाश में उड़तीं चिड़ियों से
मैं तुमसे टकरा गया
मेरा प्रारब्ध है।

अनायास ही मेरे कांधे पर
जब रखती हो तुम अपना सर
मैं थोड़ा ज़िम्मेदार हो जाता हूँ
खुली सड़क पर
जब तुम थामती हो मेरा हाथ
टूटता है मेरा देहाती परिवेश
मुझे साहस मिलता है
जब तुम झगड़ती हो बच्चों की तरह
मैं भूल जाता हूँ
मेरी उम्र अट्ठाईस हो गई है।

सचमुच!
कभी-कभी भूल जाना कितना अच्छा होता है
कभी-कभी हार जाना कितना अच्छा होता है
मैं हर बार हार जाना चाहूँगा तुमसे
मैं हर बार भूल जाना चाहूँगा हमारे मतभेद।

याद रखने को कई बातें हैं
मैं याद रखूँगा
तुम्हारे हाथों का कौर
याद रखूँगा मैं
तुम्हारा स्पर्श
तुम्हारी गंध
तुम्हारे साँसों की लय
तुम्हारी बाँहों का अरण्य
तुम्हारे होंठों का दबाव
और याद रखूँगा मैं
तुम्हारा सम्बोधन।

तुम लौटती रहना मुझमें आकाश की तरह
भरती रहना रंग मुझमें तितलियों की तरह
गहरे उतरना मुझमें समंदर की तरह।

मैं जब भी देखूँगा कोई चिड़िया
पुकारूँगा उसे
तुम्हारे नाम से
तुम जब भी देखना कोई पतंग
पुकारना मुझे मेरे नाम से
मैं कन्नी खाकर तुम्हारा जवाब दूँगा।

साँझ हो चुकी है
पंछियों ने चहकना बंद कर दिया है
ठहरा हुआ है आकाश
शाख पर पसरी है नीरवता
दूर दिख रहा है अमलतास
मैं सौंपता हूँ तुम्हें
अपना हृदय
अपना मौन
अपनी पुतलियाँ
अपनी आस्था।

होना

हर होने में
छुपा है
आगत विगत सब,

तुम्हारा होना सुंदर था।

प्रार्थना की भाषा में

वह आवाज़
जो अब नहीं सुनायी देती है मुझे
वह आवाज़
जो अब नहीं लेती है मेरा नाम
वह आवाज़
जिसकी दिशा में
मैं नहीं रहता हूँ अब

मैं उस आवाज़ को आवाज़ देता हूँ
प्रार्थना की भाषा में
आख़िरी इच्छा की तरह।

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गौरव भारती
जन्म- बेगूसराय, बिहार | संप्रति- असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, मुंशी सिंह महाविद्यालय, मोतिहारी, बिहार। इन्द्रप्रस्थ भारती, मुक्तांचल, कविता बिहान, वागर्थ, परिकथा, आजकल, नया ज्ञानोदय, सदानीरा,समहुत, विभोम स्वर, कथानक आदि पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित | ईमेल- [email protected] संपर्क- 9015326408