ऊख

1

प्रजा को
प्रजातंत्र की मशीन में पेरने से
रस नहीं, रक्त निकलता है साहब

रस तो
हड्डियों को तोड़ने
नसों को निचोड़ने से
प्राप्त होता है!

2

बार-बार, कई बार
बंजर को जोतने-कोड़ने से
ज़मीन हो जाती है उर्वर

मिट्टी में धँसी जड़ें
श्रम की गंध सोखती हैं
खेत में
उम्मीदें उपजाती हैं ऊख!

3

कोल्हू के बैल होते हैं जब कर्षित किसान
तब खाँड़ खाती है दुनिया
और आपके दोनों हाथों में होता है गुड़!

जोंक

रोपनी जब करते हैं कर्षित किसान
तब रक्त चूसते हैं जोंक!
चूहे फ़सल नहीं चरते
फ़सल चरते हैं
साँड और नीलगाय…
चूहे तो बस संग्रह करते हैं
गहरे गोदामीय बिल में!
टिड्डे पत्तियों के साथ
पुरुषार्थ को चाट जाते हैं
आपस में युद्ध कर
काले कौए मक्का बाजरा बाँट खाते हैं!
प्यासी धूप
पसीना पीती है खेत में
जोंक की भाँति!
अंत में अक्सर ही
क़र्ज़ के कच्चे खट्टे कायफल दिख जाते हैं
सिवान के हरे पेड़ पर लटके हुए!
इसे ही कभी-कभी ढोता है एक किसान
सड़क से संसद तक की अपनी उड़ान में!

सावधान

हे कृषक!
तुम्हारे केंचुओं को
काट रहे हैं— ‘केकड़े’
सावधान!

ग्रामीण योजनाओं के ‘गोजरे’
चिपक रहे हैं—
गाँधी के ‘अंतिम गले’
सावधान!

विकास के ‘बिच्छुएँ’
डंक मार रहे हैं— ‘पैरों तले’
सावधान!

श्रमिक!
विश्राम के बिस्तर पर मत सोना
डस रहे हैं— ‘साँप’
सावधान!

हे कृषका!
सुख की छाती पर
गिर रही हैं— ‘छिपकलियाँ’
सावधान!

श्रम के रस
चूस रहे हैं— ‘भौंरें’
सावधान!

फ़िलहाल बदलाव में
बदल रहे हैं— ‘गिरगिट नेतागण’
सावधान!

उम्मीद की उपज

उठो वत्स!
भोर से ही
ज़िन्दगी का बोझ ढोना
किसान होने की पहली शर्त है
धान उगा
प्राण उगा
मुस्कान उगी
पहचान उगी
और उग रही
उम्मीद की किरण
सुबह-सुबह
हमारे छोटे हो रहे
खेत से…!

गाँव से शहर के गोदाम में गेहूँ?

ग़रीबों के पक्ष में बोलने वाले गेहूँ ने
एक दिन गोदाम से कहा—
ऐसा क्यों होता है
कि अक्सर अकेले में अनाज
सम्पन्न से पूछता है
जो तुम खा रहे हो
क्या तुम्हें पता है
कि वह किस ज़मीन की उपज है
उसमें किसके श्रम का स्वाद है
इतनी ख़ुशबू कहाँ से आयी?
तुम हो कि
ठूँसे जा रहे हो रोटी
निःशब्द!

उर्वी की ऊर्जा

उम्मीद का उत्सव है
उक्ति-युक्ति उछल-कूद रही है
उपज के ऊपर

उर है उर्वर
घास के पास बैठी ऊढ़ा उठकर
ऊन बुन रही है
उमंग चुह रही है ऊख
ओस बटोर रही है उषा

उल्का गिरती है
उत्तर में
अंदर से बाहर आता है अक्षर
ऊसर में
स्वर उगाने

उद्भावना उड़ती है हवा में
उर्वी की ऊर्जा
उपेक्षित का भरती है उदर
उद्देश्य है साफ़
ऊष्मा देती है उपहार में उजाला
अंधेरे से है उम्मीद।

ईर्ष्या की खेती

मिट्टी की मिठास को सोख
ज़िद की ज़मीन पर
उगी है
इच्छाओं की ईख

खेत में
चुपचाप चेफा छिल रही है
चरित्र
और चुह रही है
ईर्ष्या

छिलके पर
मक्खियाँ भिनभिना रही हैं
और द्वेष देख रहा है
मचान से दूर
बहुत दूर
चरती हुई निंदा की नीलगाय!

किसान है क्रोध

निंदा की नज़र
तेज़ है
इच्छा के विरुद्ध भिनभिना रही हैं
बाज़ार की मक्खियाँ

अभिमान की आवाज़ है

एक दिन स्पर्धा के साथ
चरित्र चखती है
इमली और इमरती का स्वाद
द्वेष की दुकान पर

और घृणा के घड़े से पीती है पानी

गर्व के गिलास में
ईर्ष्या अपने
इब्न के लिए लेकर खड़ी है
राजनीति का रस

प्रतिद्वन्द्विता के पथ पर

कुढ़न की खेती का
किसान है क्रोध!

जवानी की जंग

बुरे समय में
ज़िन्दगी का कोई पृष्ठ खोलकर
ऊँघते-ऊँघते पढ़ना
स्वप्न में
जागते रहना है

शासक की शान में
सुबह से शाम तक
संसदीय सड़क पर सांत्वना का सूखा सागौन सींचना
वन में
राजनीति का रोना है

अंधेरे में
जुगनू की देह ढोती है रौशनी
जानने और पहचानने के बीच बँधी रस्सी पर
नयन की नायिका नींद का नृत्य करना
नाटक की नाव का
नदी से
किनारे लगना है

फ़ोकस में
घड़ी की सूई सुख-दुःख पर जाती है बार-बार
ज़िद्दी जीत जाता है
रण में
जवानी की जंग

समस्या की सरहद पर खड़े सिपाही
समर में
लड़ना चाहते हैं
पर सेनापति के आदेश पर देखते रहते हैं
सफ़र में
उम्र का उतार-चढ़ाव

दूरबीन वही है
दृश्य बदल रहा है
क़िले की काई संकेत दे रही है
कि शहंशाह के कुल का पतन निश्चित है
दीवारें ढहेंगी
दरबार ख़ाली करो

दिल्ली दूह रही है
बिसुकी गाय
दोपहर में

प्रजा के देवता श्रीकृष्ण नाराज़ हैं
कवि की भाँति!

किसान की गुलेल

गुलेल है
गाँव की गांडीव
चीख़ है
शब्दभेदी गोली

लक्ष्य है
दूर दिल्ली के वृक्ष पर!

बाण पकड़ लेता है बाज़
पर विषबोली नहीं

गुरु
गरुड़ भी मरेंगे
देख लेना
एक दिन
राजनीति के रक्त से बुझेगी
ग्रामीण गांडीव की
प्यास!

सरसराहट संसद तक बिन विश्राम सफ़र करेगी

तिर्रियाँ पकड़ रही हैं
गाँव की कच्ची उम्र
तितलियों के पीछे दौड़ रही है
पकड़ने की इच्छा
अबोध बच्चियों का!

बच्चे काँचे खेल रहे हैं
सामने वृद्ध नीम की डाल पर बैठे हैं
मायूसी और मौन

मादा नीलकंठ बहुत दिन बाद दिखी है
दो रोज़ पहले मैना दिखी थी इसी डाल पर उदास
और इसी डाल पर अक्सर बैठती हैं चुप्पी चिड़ियाँ!

कोयल कूक रही है
शांत पत्तियाँ सुन रही हैं
सुबह की सरसराहट व शाम की चहचहाहट चीख़ हैं
क्रमशः हवा और पाखी का

चहचहाहट चार कोस तक जाएगी
फिर टकराएगी चट्टानों और पर्वतों से
फिर जाएगी ; चौराहों पर कुछ क्षण रुक
चलती चली जाएगी सड़क धर
सरसराहट संसद तक बिन विश्राम किए!

चिहुँकती चिट्ठी

बर्फ़ की कोहरिया साड़ी
ठण्ड की देह ढँक
लहरा रही है लहरों-सी
स्मृतियों की डार पर

हिमालय की हवा
नदी में चलती नाव का घाव
सहलाती हुई
होंठ चूमती है चुपचाप
क्षितिज
वासना के वैश्विक वृक्ष पर
वसंत का वस्त्र
हटाता हुआ देखता है
बात-बात में
चेतन से निकलती है
चेतना की भाप
पत्तियाँ गिरती हैं नीचे
रूह काँपने लगती है

खड़खड़ाहट ख़त रचती है
सूर्योदयी सरसराहट के नाम
समुद्री तट पर

एक सफ़ेद चिड़िया ने उड़ान भरी है
संसद की ओर
गिद्ध-चील ऊपर ही
छीनना चाहते हैं
ख़ून का ख़त

मंत्री बाज़ का कहना है
गरुड़ का आदेश आकाश में
विष्णु का आदेश है

आकाशीय प्रजा सह रही है
शिकारी पक्षियों का अत्याचार
चिड़िया का गला काट दिया राजा
रक्त के छींटे गिर रहे हैं
रेगिस्तानी धरा पर
अन्य ख़ुश हैं
विष्णु के आदेश सुनकर

मौसम कोई भी हो
कमजोर…
सदैव कराहते हैं
क़र्ज़ की चोट से

इससे मुक्ति का एक ही उपाय है
अपने एक वोट से
बदल दो लोकतंत्र का राजा
शिक्षित शिक्षा से
शर्मनाक व्यवस्था

पर वास्तव में
आकाशीय सत्ता तानाशाही सत्ता है
इसमें वोट और नोट का सम्बन्ध धरती-सा नहीं है
चिट्ठी चिहुँक रही है
चहचहाहट के स्वर में सुबह-सुबह
मैं क्या करूँ?

मुसहरिन माँ

धूप में सूप से
धूल फटकारती मुसहरिन माँ को देखते
महसूस की है भूख की भयानक पीड़ा
और सूँघी मूसकइल मिट्टी में गेहूँ की गंध
जिसमें ज़िन्दगी का स्वाद है

चूहा बड़ी मशक्कत से चुराया है
(जिसे चुराने के चक्कर में अनेक चूहों को खाना पड़ा ज़हर)
अपने और अपनों के लिए

आह! न उसका गेह रहा, न गेहूँ
अब उसकी भूख का क्या होगा?
उस माँ का आँसू पूछ रहा है स्वात्मा से
यह मैंने क्या किया?

मैं कितना निष्ठुर हूँ
दूसरे के भूखे बच्चों का अन्न खा रही हूँ
और खिला रही हूँ अपनी चारों बच्चियों को

सर पर सूर्य खड़ा है
सामने कंकाल पड़ा है
उन चूहों का
जो विष युक्त स्वाद चखे हैं
बिल के बाहर
अपने बच्चों से पहले

आज मेरी बारी है साहब!

लकड़हारिन (बचपन से बुढ़ापे तक बाँस)

तवा तटस्थ है, चूल्हा उदास
पटरियों पर बिखर गया है भात
कूड़ादान में रोती है रोटी
भूख नोचती है आँत
पेट ताक रहा है ग़ैर का पैर

ख़ैर! जनतंत्र के जंगल में
एक लड़की बीन रही है लकड़ी
जहाँ अक्सर भूखे होते हैं
हिंसक और ख़ूँख़ार जानवर
यहाँ तक कि राष्ट्रीय पशु बाघ भी

हवा तेज चलती है
पत्तियाँ गिरती हैं नीचे
जिसमें छुपे होते हैं साँप बिच्छू गोजर
ज़रा-सी खड़खड़ाहट से काँप जाती है रूह
हाथ से जब-जब उठाती है वह लड़की लकड़ी
मैं डर जाता हूँ…!

कोहारिन काकी की कला

लटक रहा है
मानस के सिकहर पर
मक्खन से भरा
मथुरा का मार्मिक मटका

इस पर उत्कीर्ण है
कोहारिन काकी की कला।

गंध सूँघ रहा है बम-बिलार
बिल्ली थककर बैठी है नीचे

मक्खियाँ भिनभिना रही हैं
चूहे चढ़कर चाट रहे हैं मक्खन

अंततः बम-बिलार फोड़ दिया घर का घड़ा।

पूर्वजों ने ठीक ही कहा है
कला का महत्त्व मनुष्य जानते हैं
जानवर नहीं।

जानवर तो अपना ही जोतते रहते हैं

काकी ठीक कहती हैं
भूख कला को जन्म देती है।

कुछ भी हो
बम-बिलार बलवान के साथ-साथ चतुर भी है
क्योंकि वह मक्खन और चूहे को एक-साथ खा रहा है।

सब ठीक होगा

धैर्य अस्वस्थ है
रिश्तों की रस्सी से बांधी जा रही है राय
दुविधा दूर हुई
कठिन काल में कवि का कथन कृपा है
सब ठीक होगा
अशेष शुभकामनाएँ

प्रेम, स्नेह व सहानुभूति सक्रिय हैं
जीवन की पाठशाला में
बुरे दिन व्यर्थ नहीं हुए
कोठरी में क़ैद कोविद ने दिया
अंधेरे में गाने के लिए रौशनी का गीत

आँधी-तूफ़ान का मौसम है
खुले में दीपक का बुझना तय है
अक्सर ऐसे ही समय में संसदीय सड़क पर
शब्दों के छाते उलट जाते हैं
और छड़ी फिसल जाती है

अचानक आदमी गिर जाता है

वह देखता है जब आँखें खोलकर
तब क़िले की ओर
बीमारी की बिजली चमक रही होती है
और आश्वासन की आवाज़ कान में सुनायी देती है

गिरा हुआ आदमी ख़ुद खड़ा होता है
और अपनी पूरी ताक़त के साथ
शेष सफ़र के लिए निकल पड़ता है।

देह विमर्श

जब
स्त्री ढोती है
गर्भ में सृष्टि
तब
परिवार का पुरुषत्व
उसे श्रद्धा के पलकों पर
धर
धरती का सारा सुख देना चाहता है
घर;

एक कविता
जो बंजर ज़मीन और सूखी नदी की है
समय की समीक्षा— ‘शरीर-विमर्श’
सतीत्व के संकेत
सत्य को भूल
उसे बाँझ की संज्ञा दी।

मूर्तिकारिन

राजमंदिरों के महात्माओं
मौन मूर्तिकार की स्त्री हूँ

समय की छेनी-हथौड़ी से
स्वयं को गढ़ रही हूँ

चुप्पी तोड़ रही है चिंगारी!

सूरज को लगा है गरहन
लालटेनों के तेल ख़त्म हो गए हैं

चारो ओर अंधेरा है
कहर रहे हैं हर शहर

समुद्र की तूफ़ानी हवा आ गई है गाँव
दीये बुझ रहे हैं तेज़ी से
मणि निगल रहे हैं साँप

और आम चीख़ चली—
दिल्ली!

नदी बीच मछुआरिन

जलदेवी की तपस्या से
मछुआरे को मिल गया है मोक्ष
नदी बीच स्थिर है नाव
मछुआरिन फेंकती है जब जाल
तब केकड़े काट देते हैं

मछलियाँ कहती हैं
माता मुझे अभी मुक्ति नहीं चाहिए—
नदी से!

गड़ेरिया

1

एक गड़ेरिये के
इशारे पर
खेत की फ़सलें
चर रही हैं
भेड़ें
भेड़ों के साथ

मेंड़ पर
वह भयभीत है
पर उसकी आँखें खुली ताक रही हैं
दूर
बहुत दूर
दिल्ली की ओर

2

घर पर बैठे
खेतिहर के मन में
एक ही प्रश्न है
इस बार क्या होगा?

हर वर्ष
मेरी मचान उड़ जाती है
आंधियों में
बिजूकों का पता नहीं चलता
और
मेरे हिस्से का हर्ष
नहीं रहता
मेरे हृदय में
क्या
इसलिए कि मैं हलधर हूँ

3

भेड़ हाँकना आसान नहीं है
हलधर
हीरे हिर्य होरना
बाँ..बाँ..बायें…दायें
चिल्लाते क्यों हो
तुम्हारे नाधे
बैलें
समझदार हैं

4

मेरी भेड़ें भूल जाती हैं
अपनी राह
मैं हाँक रहा हूँ
सही दिशा में
मुझे चलने दो
गुरु
मैं गड़ेरिया हूँ
भारत का!

प्रभात की कविताएँ

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गोलेन्द्र पटेल
गोलेन्द्र पटेल काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र हैं और उनसे [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है।