तुम देखना चांद

तुम देखना चांद
एक दिन कविताओं से उठा ज्वार
अपने साथ बहा ले जाएगा दुनिया का तमाम बारूद
सड़कों पर क़दमताल करते बच्चे
हथियारों को दफ़न करके
ज़मीन को उसका सारा लोहा वापस कर देंगे
और उसकी खाद बनाकर फूल उगाएँगे

तुम देखना एक दिन शब्दों की दुनिया से
चुन-चुनकर निकाले जाएँगे अपमानजनक सम्बोधन
लोलुप जीभ अपनी लार समेत
अभ्यस्त हो जाएगी अपनी सीमाओं में रहने की
तुम्हारी चांदनी बेनक़ाब कर देगी घात लगाए भेड़ियों को
लड़कियाँ गुड्डे-गुड़ियों के खेल और मोबाइल की हद से बाहर निकलकर
बेख़ौफ़ होकर खेल सकेंगी छुप्पन-छुपाई

तुम देखना और मुस्कुराना उस बरगद के साथ
जिसकी छाँव खाप की क़ैद से मुक्त होगी
जब खिलखिलाहट पर लगे सारे प्रतिबंध
सरे राह लड़कियों के पैरों तले रौंदे जाएँगे
जब ग़ैर-बराबरी का हर दकियानूसी दस्तावेज़
चूल्हे का ईंधन बनेगा
जिसके इर्दगिर्द बैठकर बुज़ुर्ग सर्दियों में हाथ तापेंगे

तुम देखना चांद
एक दिन धरती के यान तुम्हारी तरफ़ बढ़ेंगे
लेकिन उनमें साम्राज्यवाद का कोई पिट्ठू नहीं होगा
तानाशाहों को मुँह चिढ़ाते कुछ बच्चे होंगे
जो तुम्हें गेंद समझकर खेलने आ रहे होंगे
उनके साथ होंगी दादियाँ और नानियाँ
जो तुम्हारी ज़मीन पर पलथी मारकर बैठेंगी
और इतमीनान से चरखे से सूत कातेंगी

तुम देखना चांद
कि बम वर्षा से घायल हुई पृथ्वी की देह पर
तुम्हारी चांदनी का लेप होगा
और उसकी शीतल छुअन से रोमांचित किसान
अपनी उँगलियों की कारीगरी से
धान के नन्हे पौधों से धरती को ढक रहा होगा

तुम साक्षी रहना चांद
कि जिस दिन युग करवट बदलेगा
मानवता उतार फेंकेगी कुम्भकर्णी कवच
धरती के दोनों ध्रुवों से पिघला हुआ पानी
प्रेमियों की आँखों में उतर आएगा
और वे अपनी सम्पूर्ण तरलता के साथ दौड़ते हुए
भूमध्य रेखा पर आकर मिल जाएँगे

तुम उन्हें स्नेह से देखना
और उनके श्रम श्लथ चेहरों पर
अंजुरी-भर चांदनी उलीच देना।

शिनाख़्त

गूँगी तहरीरों में दर्ज हुई इतिहास की शिनाख़्त
मुर्दा आंदोलनों के मसीहा
इंसानियत की क़ब्र पर पढ़ते रहे फ़ातिहा
चिड़ियों ने सीखा रुदन का संगीत
दुनिया क़ातिल की जगह हथियार की पहचान में मसरूफ़ है
शीशे के चेम्बरों में बैठी शराफ़त
मुर्ग़ों की लड़ाई पर शर्त लगा रही है

आख़िर कौन था वह
जिसने ए बी सी डी लिखते नौनिहालों के हाथ से पेंसिल छीनकर
अपने मन मुताबिक़ शार्पनर से छीलकर
उसे चाक़ू की तरह इस्तेमाल करना सिखाया
कठफोड़वा के साथ खेलते नौनिहालों ने
पेंसिल से लिखने की बजाय
आँख फोड़ने की कला सीखी है
कॉपियों के वे तमाम पन्ने आग के हवाले हैं
जिनके हवाई जहाज़ और कश्तियाँ बनायी जानी थीं

चिड़ियों और बच्चों के साथ सभी ने कुछ न कुछ सीखा
बुज़ुर्गों ने सीखा
जलते शहर में बर्फ़ की तरह जमे रहने का हुनर
नौजवान सीख रहे थे उन्माद की भाषा
महिलाएँ सीख रही थीं आबरू ढोने के गुर

सिर्फ़ कुछ लड़कियाँ थीं जो हिरणों के ख़्वाब पाले
भेड़ियों के झुण्ड से घिरी थीं
और गर्दन उठाए डूबते सूरज को देख रही थीं

बासी कामुकताओं से परिभाषित हुआ पुरुषार्थ
उठी हुई गर्दनों से भयभीत है
दक्षिण के बारूद पर बैठी दुनिया की यह अंधी तस्वीर है!

विद्रोह अंततः एक करुणा है

एक शाम जब परिंदों ने धक्का देकर सूरज को समुंदर में गिराया था
मुस्कुराती शाम के गालों का रंग जैसे उड़ गया
एक-दूसरे को अलविदा कहतीं चार आँखों में उभर आया पानी
विद्रोही आँसू बनकर निकल पड़ा भीतर से
और रेत में गिरकर बिला गया धरती की कोख में करुणा बनकर

ज़रूरी नहीं कि विद्रोह सिर्फ़ तोड़-फोड़ का बायस बने
घर छोड़कर करुणा का अवतार भी बन जाता है
बस उसके साथ सिद्धार्थ का चिंतन होना चाहिए।

शराफ़त

किसी भूखे द्वारा डबल रोटी चुराकर भागना अपराध होता है
और ब्याज़ के बदले गिरवी पड़े खेत को हड़प जाना शराफ़त
किसी पशु का माँस खाना पाप होता है
मगर भात के बदले शरीर नोचना शराफ़त
बेगुनाह मर्दों को क़ैद करना हक़मारी है
लेकिन औरतों को चहारदीवारी में रखना
शरीफ़ घरानों की शराफ़त

बदमाश साबित होने से पहले
इस दुनिया में सब शरीफ़ हैं
रात के कारनामों से
कलंकित नहीं होती दिन की शराफ़त

वह आदमी जो टोपी रखकर
पाँच बार मस्जिद की दौड़ लगाता है
उसकी उजली शराफ़त
रात होते ही स्त्री की देह पर पत्थर की तरह गिरती है

इस अश्लील समय में
शराफ़त उस झीनी चादर का नाम है
जिसे भीगे शरीर पर लपेटकर
सफ़ेदपोश पहचान के साथ
यौनांग दिखाने का सर्टिफ़िकेट मिल जाता है!

मास्टर स्ट्रोक

देश के बीच से गुज़रती कर्क रेखा
उत्तरी ध्रुव की ओर खिसक रही थी
भय-मिश्रित रक्त शिराओं में जमने लगा था
जिसे गर्म करने के लिए वे अकसर बस्तियाँ फूँक देते थे

वह जीत की आख़िरी तरकीब थी कि जिसमें
निर्दोष हत्याओं को वैधानिक दर्जा प्राप्त हुआ
अपने ही मुल्क को तोप के मुँह पर बिठाकर
अपने ही लोगों में डर को तबर्रुक बताकर तक़सीम किया गया
और जनता ने उसे पवित्र भाव से ग्रहण किया

दरिया के किनारे रोज़गार की मज़ार पर
लाखों दीपकों की चकाचौंध में
बेरोज़गारी का उत्सव मनाया गया
चिलम की फूँक पर बेरोज़गार जवानी को नचाया गया
और इस तमाशे को विकास बताया गया

यह अचूक युक्ति थी जिसे मास्टर स्ट्रोक कहा गया
उन्होंने इश्तिहार में छँटे ग़ुण्डे को संत बताया
और रियाया ने रंगे सियार को रहनुमा तस्लीम किया
तब से पॉलिश और इश्तहार ही तरक़्क़ी कहलाए गए
सारे बलात्कारियों और हत्यारों ने
संतों को कंदराओं में बंद करके
संतई और फ़क़ीरी का चोला ओढ़ लिया
और सीख लिया राष्ट्रवाद का मंत्र

इस इश्तहारी आपाधापी में
ख़बरची धीरे-धीरे बनते गए चिलमची
और क़लमची हो गए राजदरबार के बावर्ची
कवियों और पत्रकारों के नाम पर
बाक़ी रह गए थे कुछ सरफिरे लोग
जिन्हें समय-समय पर क़ानूनी पाठ पढ़ाकर
संविधान की रक्षा की जा रही थी
और सरकार भीड़ हत्या को लोकमानस समझकर
लोकतंत्र का सम्मान पूरी ज़िम्मेदारी से निभा रही थी!

'भूले को फिर याद करना प्रार्थना है या नहीं?'

किताब सुझाव:

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जावेद आलम ख़ान
जन्म: 15 मार्च 1980 जन्मस्थान: जलालाबाद, जनपद-शाहजहाँपुर (उत्तर प्रदेश) शिक्षा: एम. ए. हिन्दी, एम. एड, नेट (हिन्दी) सम्प्रति: शिक्षा निदेशालय दिल्ली के अधीन टी जी टी हिन्दी हंस, आजकल, वागर्थ, कथाक्रम, पाखी, पक्षधर, परिकथा समेत विभिन्न पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।

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