स्त्री

मिट्टी, पानी, अग्नि और गति से बनी
स्त्री देह, बिछुवे से खींचती पृथ्वी की
उर्जा, सिन्दूर से खींचा सारा आकाश
सूर्य को टिका लिया माथे पर।

ईद के चाँद से बना झुमका, तारों से भर
लिए मेंहदी-भरे हाथ, पढ़ती रोज़ नमाज़।

जब चारों ओर ख़ुशियाँ बिखरी हों तो
चुपके-से उठा लिया टूटा कप, और
ज़ख़्म से रिसता रहा रक्त साड़ी के
पल्लू में।

सरकारी अस्पताल की पिछली बैंच पर
काला बुर्क़ा पहने वह महिला पाँचवें शिशु
को देगी जन्म।

और, सबसे आगे बैठी पण्डिताइन तीसरे
गर्भ का भ्रूण जानने आयी मठाधीश
जनने को।

इसी देह के अग्निकुण्ड में जलकर शीतलता
पहुँचाती रहेगी कुटुम्ब की परम्पराओं को।

जरजर होती देह को घर के सबसे साधारण
कक्ष में भिक्षु बनाकर बैठाया, मोक्ष प्राप्ति के
लिए।

घुघुती

हिमालय में छिपा रहा पूरे साल,
बसन्ती घटाओं में प्रेमगीतों की
पाती लाया है।

चैत का सन्देशवाहक घुघुती,
पहाड़ के जंगलों में गूँजती
उसकी सुरीली घूरून।

काफल पकने का सन्देशवाहक
घुघुती, काफल की मीठी बेरी
खाकर अपने मधुर स्वरों की
सुहावनी तानों से
पहाड़ी लड़कियों को प्रेम करने
को उकसाता कहता है— प्रेम
में पड़ना ही जीवन है।

नववधु को कहता, अब काफल
पक गये, जाओ चख आओ
मायेके के मीठे काफल।

बाबा राह देख रहे हैं ड्योढ़ी पर
यह सोचकर नववधु की आँखों
से बहने लगते आँसू।

घुघुती के घूरून सुन मचल उठी बहू
मायके जाने को छोड़ प्रीत की डोर
अब नहीं भा रहा उसे आलिंगन।

रात मनाती प्रीतम को मायेके की
गुहार लगाती, कहती तुम्हारे पास
चली आऊँगी, सारी रात हम
बातें करेंगे।

तुम्हारी भृकुटियों के बीच जो
तिलौरिया है, उन्हें हटाकर प्रेम
करना मेरे साथ।

नहीं माने प्रिय तुम तो अगले जन्म
में घुघुती बन तेरे आँगन में घोंसला
बनाऊँगी, अपनी घुरून से तुम्हें
सोने नहीं दूँगी सारी रात।

वहीं पहाड़ियों के संकरे रास्ते घिंगांरू के
पेड़ पर घुघुती के पास जाकर नववधु
कहती है— फ़ौजी पति को सुनाकर आ
मेरी विरह वेदना।

गंगा

आर्यावर्त का मेरुदण्ड बनी माँ गंगा कैलाश से
गजगामिनी की चाल चली उन स्थानों का
स्पर्श करने जहाँ पद्मनाभ ने चरण रखे
मोहिनी रुप में।

वहीं गंगा सप्तमी पर एक नव-विवाहित जोड़ा
त्रिवेणी घाट पर बैठा, उसकी पत्नी ने बाँधकर
अपने आँचल में दशहरी आम गंगा में लटका दिए
शीतल करने को।

स्नान के उपरान्त भूख से व्याकुल हो गरम
जलेबी भर दोने के साथ शर्मा लॉज की चौथी
मंज़िल के कक्ष में बैठकर कद्दू आलू पूड़ी का
स्वाद चखा होगा, दशहरी ठण्डा आम भीगे वस्त्रों में।

पण्डे और पाखण्डियों दोनों की तारणहार माँ
तेरे ब्रह्म-द्रव्य का पान कर अनेक जीव-
जंतु कर लेते है स्वयं को स्वस्थ।

जल की स्मृतियाँ जटिल हैं, मनुष्यों
के हर जन्म का ब्यौरा रखती हैं, किसी पण्डे
की वंशज बही की तरह।

राजाजी पार्क में हथिनी ने जन्मा एक चंचल
बच्चा जो आज अपने कुटुम्ब के साथ गंगा
में जल क्रीड़ा कर रहा है, आज वह औषधियों से पोषितजल ग्रहण करेगा।

ज्योति शर्मा
ज्योति शर्मा का जन्म वृन्दावन के एक रूढ़िवादी महंत परिवार में हुआ। भीमराव आम्बेडकर यूनिवर्सिटी आगरा से हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर। ब्रजक्षेत्र के विषय पर उनके लगातार गम्भीर कार्यों के लिए ब्रज संस्कृति शोध संस्थान द्वारा उन्हें ब्रज संस्कृति सम्मान प्रदान किया गया। ज्योति आकाशवाणी से समय-समय पर काव्य पाठ और कथापाठ करती रही हैं। उनकी कविताओं की पहली पुस्तक 'नेपथ्य की नायिका' बोधि प्रकाशन से अतिशीघ्र प्रकाशित हो रही है। ये कविताएँ स्त्री जीवन और विशेष रूप से भारतीय सामान्य स्त्री के जीवन से उठायी गयी हैं। यह कविताएँ स्त्रियों के जीवन और मन पर ईमानदार टिप्पणी हैं। बचपन से वृन्दावन की विधवा स्त्रियों के आसपास रहने से उनके साथ एक गहरा जुड़ाव और अनुभव रहा है। उनसे सुनी हुई उन्हीं के जीवन की यर्थाथवादी कहानियों का संग्रह भी जल्दी ही प्रकाशित होगा।