चयन: राजेन्द्र देथा
बुरी औरत के सपनों में
बुरी औरत के सपनों में
नहीं होता पति और चरित्र और मर्यादाएँ
बन्द खिड़कियों वाला पिंजरेनुमा घर
बुरी औरत के सपनों में नहीं होती
बदन को धरती बनाकर
धान कुटवाने वाली निर्जीव सहन-शक्ति
बचपन के प्रेम को भूल जाने वाला
परिवार की प्रतिष्ठा के नाम का
पाखण्ड-पर्व
कभी नहीं होता बुरी औरत के सपनों में
दुनियादारी के घुटते हुए अँधेरे की
चहारदीवारी में
आत्महत्या का अनायास आदर्श नहीं होता
बुरी औरत के सपनों में।
बुरी औरत के सपनों में आता है
एक स्वच्छन्द बहती हुई नदी का दृश्य
और मनचाहे फूल पर बैठती हुई
तितली के पंख
बुरी औरत के सपनों में
बार-बार आता है
ज़िबह करने को लाया जाता
ख़ूबसूरत मेमना
उसके स्वच्छन्द बहते रंगों पर
टपक जाते हैं
किसी निर्दोष आत्मा के पवित्र
प्रेमाश्रु
बुरी औरत के सपनों में उबलता है
बुरे लोगों के
बुरे कामों के विरुद्ध
हृदय का लावा।
जानना
[‘अवसाद पक्ष’ से]
किसी अँधेरे कमरे के
सीलन भरे कोने की
ठण्डी दीवार से बातें करते हुए
जो स्त्री रो रही है
क्या आप उसके बारे में जानते हैं?
जो उसके बारे में नहीं जानता
वह अपनी माँ के बारे में क्या जानता है?
और पत्नी के बारे में तो बिल्कुल नहीं
वह कदाचित् ही जानता है अपनी
बहिन और बेटी के बारे में भी
जो एकान्त में बिलखती स्त्री के बारे में
पूरी तरह नहीं जानता
धरती के बारे में क्या जानता है?
पूरे संसार की स्त्रियों का
प्रतिरूप है धरती।
खेजड़ा
[‘अरे भानगढ़’ से]
अनुकूल मौसम में पनपते हैं कीट
प्रतिकूलताओं में नष्ट हो जाते हैं
नहीं कहीं भी नहीं है जल
दृष्टि सीमा से भी दूर
हर ओर
पसरी हुई है अथाह रेत
कहीं भी नहीं है जल
या जल की सम्भावना
इस मरुस्थल में
किन्तु पूरी दृढ़ता से खड़ा है
हरियल खेजड़ा
सूरज की ज्वाला को मुँह चिढ़ाता
बादलों को अँगूठा दिखाता
रेत के प्रेम-पाश में बँधा
मुस्कराता वह
आग में से जल निचोड़ने वाला पारखी
पूरी दृढ़ता से खड़ा है
जलहीन मरुस्थल का जीवन
ऋषिवत्
समय तेरी चुनौती स्वीकार है हमें
दशाओं को कर सकता है अपने अधीन
किन्तु हम भी
ख़ूब जानते हैं दिशाओं के द्वार खोलना।
दर्द का पहाड़
[‘उदास आँखों में उम्मीद’ से]
कुछ भी नहीं होता स्वतः
कोष्ठक में नहीं रहना चाहिए स्वगत
टूटे हुए काँच की तरह
दिख ही जानी चाहिए स्पष्ट
टूटे हुए दिल की दरार
जिसे न ही जोड़ा जाए तो अच्छा
किसी मज़बूत फ़िक्सर से
दीवारों की आँखों और दरवाज़ों के
चेहरों से जो दर्द टपकता है
असंख्य दर्पणों से प्रतिबिम्बित होता
बहुत छोटा पड़ जाता है उसके सामने
इंतज़ार का शब्द
समान्तर होते हुए भी समलय
हमारे दर्द
हवा में एक साथ बहते हैं और हम
ढहते हुए भी सहते ही रहते हैं
आत्मा के धरातल पर
बार-बार हरे होते हुए घाव की पीड़ा
काश! हम जान पाते परस्पर
कि दूसरों का दर्द भी हो सकता है
हमारे अपने दर्द से ज़्यादा पीड़ादायक
यदि सुन पाते हम
अपनी तरह के अन्य लोगों की आत्मा की
हृदय द्रावक कारुणिक पुकार
बहुत कठिन है उसके लिये
दर्दीले गीत की पुकार को
अनसुना करते हुए आगे बढ़ना
जिसने वास्तव में ढोया हो
दर्द का पहाड़ अपने जीवन में।
सोचिए कैसी आ पड़ी होगी
[‘हर्फ़ दर हर्फ़’ से]
सोचिए कैसी आ पड़ी होगी
साफ़ लफ़्ज़ों में जब तड़ी होगी
या तो सच बोलने से बाज़ आओ
वरना हाथों में हथकड़ी होगी
ख़ून आँखों में उतर आएगा
आँसुओं की लगी झड़ी होगी
वक़्त जैसे कि रुक गया होगा
और चलती हुई घड़ी होगी
जब भी हिम्मत से कही जाएगी
बात क़ानून से बड़ी होगी।