मेरी निजता की परिधि में तुम
अमावस का चाँद छुपता है
गहरे सागर में
नींद अंगड़ाइयों में छुप जाती है
प्रेम लड़ता है तमाम प्रतिबन्धों से
और हारकर छुप जाता है
रूढ़ियों में
भाषाएँ मृत होने से पहले
ज़रूर छुप जाती हैं उन किताबों में
जिन्हें इतिहासकार पढ़ते हैं
या भाषाविद्
सरकारें ग़लतियाँ छुपाती हैं
अदालतें अपराध
व्यापारी लाभ
मज़दूर और किसान
ज़रूर कुछ छुपाते हैं
भूख के अलावा भी
समझदार लेखक
द्विअर्थी भाषा के पीछे
बड़ी सावधानी से छुपा ले जाते हैं
अपनी चाटुकारिता
मेरी निजता की परिधि में हो तुम, फिर भी
छुपाने की कला से अनभिज्ञ मैं
अगर चाहूँ भी तो नहीं छुपा पाता तुम्हारा प्रेम
भरे हुए बादल बरस ही पड़ते हैं
कहीं न कहीं।
कब तक
मैं अपनी सभ्यता का सबसे आदिम भय ढोता रहूँगा
अपनी पीठ पर कब तक
कब तक मेरी आँखों में चुभती रहेंगी
इतिहास के पृष्ठों से निकलकर
मेरी समकालीनता पर छा जाने वाली असंख्य वर्जनाएँ
आस्था और संस्कार के नाम पर थोपी गईं आदतें
कब तक छूटेंगी
कब तक टूटेगा धार्मिक श्रेष्ठता का भ्रम
न जाने
कब तक दोहराता रहूँगा पितामहों की ‘भूल-ग़लती’
न जाने
कब तक चुनता रहुँगा एक हठी-आतातायी-निरंकुश सरकार
क्या सचमुच नहीं है कोई विकल्प
धिक्कार, लोकतन्त्र!!
जो भी हो
अब तो देखना ही है;
कब तक नहीं आएगा जीवन-वसन्त
कब तक नहीं होगा समस्याओं का अन्त
कब तक
आख़िर कब तक नहीं निकलेगी कोई नयी दिशा!
कब तक
आख़िर कब तक नहीं फूटेगा कोई नव-अंकुर!
दर्शन
1
मेरे जन्म से पहले दुनिया नहीं थी
मेरी मृत्यु के बाद दुनिया नहीं रहेगी
मैं था मेरे जन्म से पूर्व भी
भविष्य की चिन्ताओं में, माता-पिता की इच्छाओं में
मैं रहूँगा मेरी मृत्यु के बाद भी
तुम्हारी स्मृतियों में, सरकारी दस्तावेज़ों में
तुम नहीं रहोगे, कहीं नहीं रहोगे मेरे लिए
पारलौकिक कुछ भी नहीं।
2
ईश्वर अनन्त ब्रह्माण्ड की यात्रा पर है पहली और अन्तिम बार जब वो यहाँ आया था
हम सो रहे थे
अनन्त की यात्रा पर निकले
बहुत कम ही लोग लौट पाते हैं वापस
पन्द्रहवीं सदी के यूरोपीय नाविक भी
कहाँ ही लौट पाते थे सब के सब
ईश्वर न तो नाविक है
और न ही उतना साहसी
फिर भी उम्मीद है; वह पुनः लौटेगा!
उम्मीद ये भी है
इस बार हम जाग रहे होंगे।
कोरोना काल में
1
ख़ुशियों की परिधि छोटी हो रही है
दुःख की बाँहें फैलती ही जा रही हैं
इतिहास पढ़ते हुए मृत्यु
के जितने भयानक दृश्य कल्पित किए थे
मानो सबके सब वर्तमान में सिमट आए हों
आस्थाएँ टूट रही हैं
फिर भी
डर इतना है कि नास्तिकों के मुँह से भी ईश्वर का नाम निकल पड़ता है
अख़बारों से निकलती हैं चीख़ें
गूँजती रहती हैं दिमाग़ में दिन-भर,
युद्धबन्दियों की तरह हैं हम
कितने कम विकल्प हैं कि कुछ कर पाएँ
‘कोई उम्मीद बर नहीं आती’
2
कला असाध्य है इन दिनों
भाषा में लौट-लौट आते हैं वही
दो-चार शब्द
पीड़ा, मृत्यु, दुःख, हताशा, डर, उम्मीद
एक ही बिन्दु पर केन्द्रित है सारी दुनिया
दसों दिशाओं में तैरता है एक ही दृश्य
गाँव-शहर
गली-सड़क-चौराहा
मैदान-पर्वत-नदी-सहरा
कहाँ नहीं हैं शोकगीत!
इस साल बसन्त कम आया है पिछले साल से
फूल उगते हैं कहीं पर दिखते नहीं
उजले पंखों वाली एक चिड़िया ज़रूर दिखती है हर शाम
उसी का पीछा करते गुज़र जाती है रात
सुबह होते ही पूछतीं हैं आँखें
‘नींद क्यों रात-भर नहीं आती’
3
उदासियों का मौसम है
उदास होता हूँ तो लगता है ख़ुश हूँ
जानता हूँ
जो रो रहे हैं
असल दुःख उनके हिस्से आया है
हँसी तो ख़ैर
‘अब किसी बात पर नहीं आती’…