चुनौतियाँ पेट से हैं
इन दिनों रवि भारी है रबी पर
और सुनहरी चमक लिए खड़ी हैं बालियाँ
देख रही हैं बाट मज़दूरों की
कसमसा रही हैं मीठे दर्दों में
सुना है चुनौतियाँ पेट से हैं
अभी करनी है उन्हें गर्भ से गृह तक की यात्रा
संजोए खड़ी हैं उन नन्हें दानों को
जो आतुर हैं बाहर आने को
कहीं झुलस न जाएँ रवि के तेज ताप से?
उनके जन्मते ही जंग तय है
लड़ना है उन्हें राष्ट्रीय राजमार्गों पर
घोड़ा-गाड़ियों, बैल-गाड़ियों, रेलगाड़ियों से
पहुँचने को पेड़ से पेट तक
करनी है दिल से दुकान तक की यात्रा
क्या झेल पाएँगी
संक्रमण का क़हर?
लॉक डाउन का असर?
महामारी का जोखिम और हज़ार शर्तें?
पता नहीं!
सरकारी वादों और इरादों पर टिकी हैं इनकी उम्मीदें
और उन उम्मीदों पर टिकी है दुनिया की भूख
न जाने क्या होगी नयी मिसाल
और उनकी आधारशिला?
सुना है चुनौतियाँ पेट से हैं!
मनुष्य न कहना
सुनो मित्र!
अभी मैंने पेश नहीं किए
मनुष्यता के वे सारे दावे
जो ज़रूरी हैं मनुष्य बने रहने को
इसलिए तुम मुझे मनुष्य न कहना
तुम मुझे विहग भी मत कहना
क्योंकि उड़ना मुझे अभी आया नहीं
मुझे तुम मवेशी भी मत समझ लेना
क्योंकि मूक रहना मुझे भाया नहीं
तुम मुझे नीर, क्षीर या समीर भी मत कहना
क्योंकि उनके जैसी पवित्रता
और शीतलता मैंने पायी नहीं
न कहना तुम मुझे धरा या वसुधा
क्योंकि उसके जैसी क्षमा मुझमें समायी नहीं
हाँ! तुम कुछ कहना ही चाहते हो
पुकारना ही चाहते हो सम्बोधन से
तो पुकारना तुम मुझे
ऐसे खिलौने की तरह
जो टूटकर मिट्टी की मानिन्द
मिल सकता हो मिट्टी में
जल सकता हो अनल में
बह सकता हो जल में
उड़ सकता हो आकाश में
या फिर उतर सकता हो पाताल में
ताकि तुम्हारे द्वारा अपनाए गए
सारे प्रयोगों से बचकर
दिखा सकूँ अपनी वही चिर-परिचित मुस्कान
दुःखों से उबरने का अदम्य साहस
और एक सम्वेदनशील हृदय
भला और दे भी क्या सकती हूँ
अपनी मनुष्यता का साक्ष्य!
तारीख़ें
वक़्त की दहलीज़ लाँघ
मियाद पूरी होते ही
उतर जाते हैं दीवारों से
ओढ़कर उदासीनता की चादर
जिनमें लिपटी होती हैं
स्याह रंग से रंगी तारीख़ें
और सिमटी रहती है
ख़ुशी और ग़म की दास्तां
वक़्त के गुज़रते ही
तटस्थ हो जाती हैं तारीख़ें
चलती हैं संग-संग मीलों मील
कभी नज़र आ जातीं कैमरे में क़ैद
तो कभी अदालत की पैरवी से थकीं
न्याय के मुकम्मल वक़्त का इन्तज़ार करतीं
कोई दिखती है
कलंक की कालिमा से पुती
आतंक की वेदी पर चढ़े
शहीदों की चिताओं पर
रोती-चिंघाड़ती
तो कोई अपने नाम जीत दर्ज करा
सुशोभित कर रही इतिहास को
घटती-बढ़ती
नयी-नयी गिनतियों से सजी
कुलाँचें भरती आशा और उमंग की
हार जाती हैं
अतीत की कहानियाँ सुनकर
बीते दिनों की बातों में
इनका ज़िक्र होता है
ख़ुद को हाशिए पर नहीं आने देतीं
अहम रहती हैं
कल, आज और आग़ाज़ में
बँट जाती हैं दिन-रात में
साल दर साल
बदल जाते हैं कैलेण्डर
असरदार रह जाती हैं केवल तारीख़ें
जिन्हें रह-रहकर झाँकता है वर्तमान
मेरे संग-संग न चलतीं तारीख़ें
तो शायद इतिहास का अस्तित्व न जान पाती!