1

ढहते थे पेड़
रोती थी पृथ्वी
हँसता था आदमी

मरती थी नदी
बिलखता था आकाश
हँसता था आदमी

टूटता था संगीत
बुझता था प्रकाश
हँसता था आदमी

टूट रहा है आदमी
बुझ रहा है आदमी
ढह रहा है आदमी
बह रहा है आदमी

बिलख रहा है आदमी

पेड़, आकाश, प्रकाश
संगीत, नदी, पृथ्वी
कोई हँसता नहीं

सब मूक होकर देख रहे हैं
आदमी को न हँसते हुए।

2

जब ऊब से भरा जीवन
मैंने आँचल फैलाया
बुलबुल ने संगीत दिया
और कहा— सुन लो!

झरने ने दिया पानी
और कहा— पी लो!

आकाश ने दिया छाँव
और कहा— सुस्ता लो!

जब डूबता दिखा जीवन
मैंने तुम्हें पुकारा

माथे का दुर्भाग्य चूमकर
तुमने कहा—
थोड़ा और जी लो!

3

प्रेम निर्मल होता है
बच्चे की दूधिया हथेली में
टिके पानी की तरह

लाख षड्यंत्र रचे जाएँ
प्रेम को दूषित करने के

हम-तुम बचा ही लेंगे
अँजुरी-भर प्रेम!

4

हमारा प्रेम
आँगन में उगी
घास की तरह था
जिसे बार-बार
नोंचकर फेंका गया।

प्रेमियों को एक कोना देने में
दुनिया की सारी ज़मीन नप जाती है।

ढेर सारी फ़ुर्सत के बावजूद
हम-तुम हमेशा जल्दी में रहे।

जितनी देर में बच्चा ‘क’ से ‘घ’ पर पहुँचता है,
उतनी देर में हम मिलकर विदा भी ले लेते थे।

मिलने के दिन तुम्हारे किचन का दूध
ज़रूर फफककर गिरता था।
मुझे भी उसी दिन मोजे की जोड़ी
नहीं मिलती थी।

कितनी बार हमने भागकर ट्रेन पकड़ी
कइयों बार हम टिकट नहीं ले पाते थे
हम नसीब के इतने कच्चे थे कि
आख़िरी स्टेशन पर
उतरने से पहले धराते थे।

प्रेमियों का भाग्य लिखते समय
ईश्वर की क़लम नहीं,
तख़्ती ही टूट जाती है।

5

मैंने नदी से नहीं कहा
मेरे क़दमों में बिछ जाओ
या कर दो मुझे उस पार

मैंने बस नदी को
आँख-भर देखा
और मैं पार हो गया।

नदी भाषा नहीं जानती

नदी तृष्णा जानती है,
नदी प्रेम जानती है

और प्रेम भाषा पर
अवलम्बित नहीं होता।

6

तुम ये न कहना कि
तुम इसलिए नहीं आयीं क्योंकि
तुम आना नहीं चाहती थीं

तुम ये कहना कि तुम आ नहीं पायीं
क्योंकि रास्तों ने तुम्हें रास्ता नहीं दिया।

तुम कहना कि मैं छाता भूल गयी थी,
तुम कह देना कि नाव में जगह कम थी।

तुम बस कह देना
मैं मान लूँगा कि
फूल काँटे बन गए
घटा शोले बरसाने लगी
तितली ने तुम्हें भटका दिया
दरख़्त तुम्हारे सामने हो गए।

तुम कहना कि तुम्हें आने नहीं दिया गया,
पर तुम ये न कहना कि
तुमइसलिए नहीं आयीं क्योंकि
तुम आना नहीं चाहती थी।

7

तीसरे पहर का चाँद लजा जाता है
शांत नदी में अपना हुस्न देखकर

चला आता है नीचे नंगे बदन
धरती मखमली रात से ढाँप लेती है

झींगुर छेड़ते हैं मिलन का राग
निशाचर बजाते हैं मधुर जलतरंग
पुष्प खिलकर मनाते हैं उत्सव

एक विनम्र प्रेमी की तरह
प्रेमिका की देह पर निशान छोड़कर
चाँद चला जाता है दिन होने से पहले

ओस धरती के माथे पर
चाँद का चुम्बन है।

नीरव की कविता 'एक में अनेक'

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