चार चौक सोलह
उन्होंने न जाने कितनी योनियाँ पार करके
पायी थी दुर्लभ मनुष्य देह
पर उन्हें क्या पता था कि
एक योनि से दूसरी योनि में पहुँचने के
कालान्तर से भी
कई अधिक समय लगता है
किसी ग़रीब को अपने घर पहुँचने में
और ज़रूरी नहीं कि वह
पहुँच ही जाएगा उस घर
जहाँ पहुँचने के सपने उसने पहले ही भेज दिए हैं
कितनी ही सूखी आँखों में
वे भौतिक सीमाओं पर
दृष्ट शत्रुओं से लड़ रहे सैनिक नहीं है
वे अदृष्ट दुर्भाग्य की सीमाओं पर खड़े
जूझ रहे हैं ख़ुद अपने से
वे खड़े हैं
दो राज्यों को जोड़ने वाले
उस राष्ट्रीय राजमार्ग पर जिसे बनाया था
उनके ही पुरखों ने
कि तलवे सेकने वाले डामर पर
हमारी औलादें सेकेंगी
अपनी भूख
उनको समझाओ कि
राजमार्ग दो शब्दों से मिलकर बना शब्द है
राज का मार्ग अलग होता है
प्रजा का अलग
तुम ढूँढते रह जाओगे राज को मार्ग-भर और
राज, अपने वातानुकूलित कक्ष से
जारी कर रहा होगा आँकड़े
कि आज रेल की पटरी पर
चार-चार रोटियों का तकिया लगाकर
सोलह मज़दूर सो गए चैन की नींद!
अन्धेरे के दिन
कभी-कभी
अन्धेरे के दाँत
इतने तीखे नहीं होते
जितने तीखे होते हैं उजाले के नाख़ून
रात इतनी ख़ौफ़नाक नहीं होती
जितने डरावने होते हैं दिन
वर्ष के कुछ दिनों की झोलियों में
भरा होता है घनेरा डर
जबकि रातों की जेबों में होती है
टिमटिमाते तारों की खनखनाहट
मैं माँगता हूँ वो जंगल
जहाँ कभी नहीं पहुँचता दिन
अपने तीखे नाख़ूनों से
नोचते हुए
किसी ग़रीब का पेट!
तुम भी लिखो ना
तुम भी लिखो ना
कि तुम्हारे लिखे बिना
नहीं होगा यह महाकाव्य पूरा,
जहाँ भी हो
वहीं से शुरू करो लिखना
मत सोचो कि
पर्वत की गुफा अथवा
अथाह जलराशि के निकट ही
होगा आरम्भ
कविता का
तुम तो बस लिख दो
कि ज़रूरी है लिखना
जैसे ज़रूरी है जीना
मत करो प्रतीक्षा
किसी क्रौंच के
फिर से मारे जाने की
मत करो प्रतीक्षा किसी
राजकुमारी की जो
करे तुम्हारा तिरस्कार
तब उठे तुम्हारी लेखनी
उससे पहले ही
लिख दो
कि
नहीं होगा विधाता की
परमेष्ठी संख्या का पूर्णांक
तुम्हारे लिखे बिना
क्योंकि तुम हो
लिख दो
ग्लेशियर के पिघलने की प्रतीक्षा में
नदियों के सूखने के इन्तज़ार में
मत गँवाओ समय
सब कुछ पिघल चुका है
गल चुका है
सूख चुका है
बस लिख दो
नहीं हैं शब्द
न सही
आँसुओं ही से भीगो दो
काग़ज़ को
वह पढ़ लेगा
जिसने शुरू किया होगा
लिखना।
दुःख
एक वरदान है
अभिशाप भी
आच्छादन है अनावरण का
सिहर उठती है आत्मा
निर्वसन दुःख को देख
क्योंकि हमें अभ्यास है
वासनावेष्टित दुःखदर्शन का
चाहे चिथड़े से ही क्यों न ढकी हो उसकी देह
हमें लगता है वह
अपना-सा।
दुःख – २
मानव-मन की
ईश्वरीय संरचना के साथ
प्रकट हुआ
वह देव है
जिसकी प्रतिमा
घट-घट में है।
अथक
सिसकती हुई देह के पास
शब्द बैठ जाते हैं
चुपचाप
उनके अर्थ दब जाते हैं
गहरी उदासी के नीचे
दुःख की आदिम परछाई मात्र
रहती है उसकी गोद में
जिसे एक नन्हे शिशु की तरह सम्भालती
वह
खो जाती है
थककर सो जाती है ।
रक्त-अबीज
मैं
अपनी देह को फेंकता हूँ
एक गहरे आलोक में
नहीं
वो सूरज नहीं
सूरज तो कब का काला पड़ चुका
मेरी आत्मा-सा
वो मेरा लहू
जिसमें अब नहीं बची है
मानव-जाति की
कोई उजली सम्भावना
अपने रक्तांश को छिटक आया
किसी बूचड़ख़ाने में
अब वह है
एकदम ठण्डा
एकदम सफ़ेद
धूप-सी नदी में
तैरते हिमखण्ड-सा।