प्रस्तुति: विजय राही
पिता की वर्णमाला
पिता के लिए काला अक्षर भैंस बराबर।
पिता नहीं गए कभी स्कूल
जो सीख पाते दुनिया की वर्णमाला।
पिता ने कभी नहीं किया
काली स्लेट पर
जोड़-बाक़ी, गुणा-भाग
पिता आज भी नहीं उलझना चाहते
किसी भी गणितीय आंकड़े में।
किसी भी वर्णमाला का कोई अक्षर कभी
घर बैठे परेशान करने नहीं आया
पिता को।
पिता
बचपन से बोते आ रहे हैं
हल चलाते हुए
स्याह धरती की कोख में शब्द-बीज
जीवन में कई बार देखी है पिता ने
खेत में उगती हुई पंक्तिबद्ध वर्णमाला।
पिता की बारखड़ी
आषाढ़ के आगमन से होती है शुरू
चैत्र के चुकतारे के बाद
चन्द बोरियों या बण्डे में भरी पड़ी रहती है
शेष बची हुई वर्णमाला
साल भर इसी वर्णमाला के शब्द-बीज
भरते आ रहे हैं हमारा पेट।
पिता ने कभी नहीं बोयी गणित
वरना हर साल यूँ ही
आखा-तीज के आसपास
साहूकार की बही पर अँगूठा चस्पा कर
अनमने से कभी घर नहीं लौटते पिता।
आज भी पिता के लिए
काला अक्षर भैंस बराबर ही है
मेरी सारी कविताओं के शब्द-युग्म
नहीं बाँध सकते पिता की सादगी।
पिता आज भी बो रहे है शब्द-बीज
पिता आज भी काट रहे हैं वर्णमाला
बारखड़ी आज भी खड़ी है
हाथ बाँधे पिता के समक्ष।
भूख का अधिनियम
शायद किसी भी भाषा के शब्दकोश में
अपनी पूरी भयावहता के साथ
मौजूद रहने वाला शब्द है भूख
जीवन में कई-कई बार
पूर्ण विराम की तलाश में
कौमाओं के अवरोध नही फलाँग पाती भूख।
पूरे विस्मय के साथ
समय के कण्ठ में
अर्द्धचन्द्राकार झूलती रहती है
कभी न उतारे जा सकने वाले गहनों की तरह।
छोटी-बड़ी मात्राओं से उकतायी
भूख की बारहखड़ी
हर पल गढ़ती है जीवन का व्याकरण।
आख़िरी साँस तक फड़फड़ाते हैं
भूख के पंख
कठफोड़े की लहूलुहान सख़्त चोंच
अनथक टीचती रहती है
समय का काठ।
भूख के पंजों में जकड़ी यह पृथ्वी
अपनी ही परिधि में
सरकती हुई
लौट आती है आरम्भ पर
जहाँ भूख की बदौलत
बह रही होती है एक नदी।
गाँव इन दिनों
गाँव इन दिनों
दस बीघा लहुसन को ज़िन्दा रखने के लिए
हज़ार फीट गहरे खुदवा रहा है ट्यूवैल
निचोड़ लेना चाहता है
धरती के पेंदे में बचा रह गया
शेष अमृत
क्योंकि मनुष्य के बचे रहने के लिए
ज़रूरी हो गया है
फ़सलों का बचे रहना।
फ़सल जिसे बमुश्किल
पहुँचाया जा रहा है रसायनिक खाद के बूते
घुटनों तक
धरती भी भूलती जा रही है शनैः-शनैः
असल तासीर
और हमने भी बिसरा दिया है
गोबर-कूड़ा-करकट का समुच्चय।
गाँव, इन दिनों
किसी न किसी बैंक की क्रेडिट पर है
बैंक में खातों के साथ
चस्पा कर दी गई है खेतों की नक़लें
बहुत आसान हो गया है अब
गिरवी होना।
शायद, इसीलिए गाँव इन दिनों
ओढ़े बैठा है मरघट-सी ख़ामोशी
और ज़िन्दगी से थक चुके किसान की गर्म राख
हवा के झौंके के साथ
उड़ी जा रही है
राजधानी की ओर…