दुःख जुड़ा रहा नाभि से

नाराज़गी का बोझ उठा सकें
इतने मज़बूत कभी नहीं रहे मेरे कंधे

‘दोष मेरा नहीं, तुम्हारा है’
यह कहने के बाद मन ने तब तक धिक्कारा स्वयं को
जब तक अपराधबोध ने श्वासनली अवरुद्ध न कर दी और क्षमायाचना न करवा ली

प्रेम करते हुए स्वयं को घाट पर पानी पीते उस निरीह हिरण की भूमिका में पाया
जिसे बाहर से भी घात का डर है और पानी के भीतर से भी
जिसके लिए पानी पीना भी दुरूह है और न पीना भी

विरक्ति ने मनमाने पैर पसारकर अपनी जड़ें मज़बूत कर लीं
वांछना और प्राप्ति के बीच इतना अंतराल रहा

सुख आया भी तो किसी नकचढ़े अतिथि की तरह
आवभगत में ज़रा-सी कमी हुई कि
बोरिया-बिस्तर उठाकर चलता बना

दुःख जुड़ा रहा नाभि से
माँ की तरह
गालियाँ दीं, मारा-पीटा, ख़ूब रुलाया
और अन्ततः आँसू पोंछते हुए
सीने से लगाकर
सहेज लिया अपने आँचल में…

दुःख बाँटते हुए

किसी का दुःख जानते हुए मैंने जाना
कितनी खोखली है दुःख बाँटने की अवधारणा

गले के अन्तिम स्वर से निकलने वाली चीख़ें
सीने से उठती हूक
रोम-रोम पिराती टीस और कराहटें
क्या सच में बाँट सकते हैं हम
किसी की बेचैनियाँ

हम नहीं रोक सकते उन स्मृति तरंगों को
जो नाभि से संचारित होकर झकझोर देती हैं
मस्तिष्क के तंतुओं को
दिन में बहत्तर बार

नहीं सुखा सकते
हृदय के भीतर उमड़ता भाव सागर
जिसमें उठता ज्वार-भाटा बार-बार तोड़ देता है
आँखों के तटबंध

या फिर दुःख बाँटना भी एक कला है शायद
जिसके ‘क’ से भी अनभिज्ञ हूँ मैं
मैं चाहकर भी नहीं बदल पायी
अपनी मुस्कुराहट से किसी के आँसू
किसी की जागती आँखों से
अपनी उबासियाँ!

मेरे लिखे में

मेरी आँखों में झाँककर जिसने माँ से कहा था— “इसकी आँखें देखीं आपने… हल्की भूरी हैं… आकर्षक।”

मेरे लिखे में वह पुरुष डॉक्टर है

ख़ुद से पाँच साल बड़ी दोस्त का उससे पाँच साल बड़ा प्रेमी है जिसे प्यूबर्टी की उम्र में चूमा था मैंने

एक लड़का है जिसने सारे मोहल्ले में अफ़वाह उड़ायी थी कि उसका चक्कर है मुझसे

एक वह लड़का है जिसने महीनों साइकिल से मेरा पीछा किया

वह डरावना पुरुष है जिसने राह चलते मेरे सीने पर हाथ मारने की कोशिश की थी

एक वह लड़का भी, जिसने बिना कुछ कहे सालों चोर नज़र से देखा मुझे

एक वह पुरुष दोस्त है जिसकी दोस्ती ने अनजान शहर को अपना बनाया

मेरे लिखे में पति बन चुका एक प्रेमी है

एक छूटा हुआ प्रेमी है जिसका छूट जाना ही बेहतर था

एक छूटा हुआ दोस्त है जिसे कभी नहीं छूटना था

कोई एक नहीं, अनेक पुरुष हैं मेरे लिखे में

तुम किसे ढूँढ रहे हो दोस्त??

अन्तिम बार

तुम्हें कस लूँ अपने बाहुपाश में
अंकित कर दूँ अपने सम्पूर्ण प्रेम से तृप्त एक चुम्बन
तुम्हारी पेशानी पर
तुम्हारी आँखों के इन लाल डोंरों में पढ़ लूँ प्रेम के सर्वस्व ग्रन्थ
अपनी साँसों में तुम्हारी साँसों की मादक सुगन्ध भरकर
समेट लूँ सारी स्मृतियाँ अपने भीतर
इहलोक और परलोक के लिए

अन्तिम बार

यही सोचती हूँ हर बार जाने से पहले
परन्तु वह अन्तिम प्रणय क्षण बन जाता है प्रथम प्रणय
प्रत्येक बार
और फिर मेरे निर्णय की हार कहूँ अथवा प्रेम विजय
कि जड़ हो जाते हैं मेरे क़दम
और मैं जा ही नहीं पाती।

सर्वनाम

कोई व्यक्तिवाचक संज्ञा नहीं हूँ मैं
मुझे दिए गए हैं सर्वनाम
मेरे विशेषण
मेरी फ़ोर डाइमेंशनल आवाज़ के अनुसार
मेरी निडर आवाज़ के लिए मुझे कहा गया निर्लज्ज
खुली और गूँजती आवाज़ के लिए अमर्यादित
ऊँची आवाज़ के लिए असभ्य, असंस्कारी
मेरी भारी आवाज़ के लिए मुझे कहा गया अहंकारी
क्योंकि संज्ञाएँ सुरक्षित हैं यहाँ,
चरित्रवानों के लिए
और मैं
कुल मिलाकर
चरित्रहीन हूँ।

'आदमी कहता है कि वह औरत होना जानता है'

किताब सुझाव:

पायल भारद्वाज
पायल भारद्वाज मूलतः उत्तर प्रदेश, ज़िला बुलंदशहर के खुरजा नगर से हैं और पिछले दस वर्षों से दिल्ली में रहती हैं।