कविता संग्रह: ‘जीवन के दिन’प्रभात
चयन व प्रस्तुति: अमर दलपुरा

याद

मैं ज़मीन पर लेटा हुआ हूँ
पर बबूल का पेड़ नहीं है यहाँ
मुझे उसकी याद आ रही है।
उसकी लूमों और पीले फूलों की…

बबूल के काँटे
पाँवों में गड़े काँटे निकालने के काम आते थे।
पर अब मेरे पास वे पाँव ही नहीं हैं जिनमें काँटे गड़ें
मुझे अपने पाँवों की याद आ रही है।

प्रेम और पाप

बुआ की उन आँखों की रोशनी चली गई
जिन आँखों से युवापन में
किसी को प्यार से देखने के कारण दो बार बदनाम हुईं,
कुछ भी अच्छा न चल रहा हो तो
प्रेम जैसी अनुपम घटना भी पाप से सन जाती है।

बुआ का प्रेम पाप कहलाया और उसे उजाड़ गाँव में ब्याह दिया गया
अब बुआ बूढ़ी हो गई थी और उसका प्रेम एक लोककथा
उसका बेटा उसे गोबर के कण्डों के घर में रखता था
प्रेम जैसी अनुपम घटना के बदले में बुआ को पाप जैसा जीवन मिला।

एक बार बात

जब मेरी चिता सजेगी
श्मशान में बैठे लोगों से कहूँगा
अरे अब तो इतनी फ़्री कॉलिंग है
मेरी रंजीता से बात करवा दो
वो मेरे साथ काम करती थी
शन्नो से बात करवा दो
उससे मेरी पत्नी बहुत जलती थी

पर मैं जानता हूँ
कोई नहीं करवाएगा
अन्तिम समय में उनसे कोई बात
जिन्हें चाहते हुए
टिक गया इतने दिन पृथ्वी पर पेड़ की तरह।

झोंपड़ी और नाव

कभी-कभी लगता है
प्रेम में जितना जान लिया
उतना ही काफ़ी है।

और जानना
बचे-खुचे को भी
नष्ट न कर दे कहीं
अमृत कोई बार-बार पीने की चीज़
थोड़े ही है।

प्रेम में जो मिला
घास-फूस, खरपतवार
झोंपड़ी और नाव बनाने के लिए
काफ़ी है।

भद्दे पैर

भाभी कहती थी
इस रंग में मत पड़ो
कोई सोते के पैर काट जाएगा

मैं कहता था
हाँ भाभी
ऐसा हो भी सकता है।

मेरे पैर कटने से बच गए
समाज ने सबके लिए राहें बना छोड़ी थीं
जिसके लिए कहती थी भाभी
वह उसके लिए बनायी राह पर चली गई
मैं भी मेरे लिए बनायी राह पर चला गया

मोर की तरह रोता हूँ
देख-देखकर भद्दे पैरों को
ये तो कटे से भी बुरे हैं।
उस दिशा में नहीं चले ये
जिस दिशा में चलना था इन्हें।

दबंग

गाँव के वे दबंग कभी दबंग जैसे लगे नहीं थे
हम जैसा ही ओढ़ते पहनते बिछाते थे
हम जैसा ही खाते-पीते थे
हम साथ-साथ ही होली-दीवाली मनाते थे
गाँव में होली खेलने हम सब साथ-साथ ही
नाचते-गाते-बजाते हुए घर-घर गुलाल उड़ाते थे
उनके पास भी पशु थे, हमारे पास भी
वे भी औरतें-बच्चे, बड़े-बूढ़े मिलकर
खेत-खलिहान में जुटकर काम करते थे, हम भी
जाति भी हमारी एक ही थी, धर्म भी

बल्कि एक दिलचस्प पहलू यह था कि
हमारे घरों में उनसे ज़्यादा पढ़े-लिखे लोग थे
दो-चार सरकारी नौकरियों में थे
राज्य के प्रशासनिक पदों पर थे।
पत्रकारिता, समाज सेवी संस्थाओं में थे
दो-चार परिवार देश के विख्यात नगरों और
राज्यों की राजधानियों में जा बसे थे

इधर उन्होंने गाँव में ही तरक़्क़ी की
ज़मीनें ख़रीद लीं, ट्रैक्टर ख़रीद लिए
मोटरसाइकिलें उनके बच्चे-बच्चे के पास थीं

दो घरों में जीप थी, एक की बस चलने लगी थी
दो-एक लड़कों के पास बारह बोर थी
एके सैंतालीस उनके किन्हीं परिचितों के पास थी
दो-चार लड़के अफ़ीम और हथियार तस्करी वगैरह में थे ।
उनकी राजनीतिक ताक़त बहुत बढ़ गई थी
इलाक़े के विधायक-मंत्रियों की गाड़ियाँ आते-जाते
उनके यहाँ रुकने लगी थीं
वे पार्टियों के वोट-बैंक कहलाने लगे थे

तब भी हमारे और उनके रहन-सहन, खान-पान
रीति-रिवाज में कोई फ़र्क़ नहीं आया था
वही उठना-बैठना, आना-जाना था
हँसी-ख़ुशी, रोग-शोक, दुःख-व्याधि में शामिल होना था
उनकी बकरी को भी कुछ हो जाए तो हम दौड़े जाते
हमारी बाखड़ में साँप दिख जाए तो वे दौड़े आते

पर अभी पिछले दिनों उनके कुछ लड़कों ने
हमारी एक बच्ची के साथ बलात्कार किया
जब नया जीवन शुरू करना था उस मासूम को
सब कुछ ज्यों का त्यों छोड़, यह संसार छोड़ जाना पड़ा

उनके कुछ बड़े-बुज़ुर्गों ने खेद व्यक्त किया
ज़माना बदल जाने की बात कही
नयी औलादें तो सब जगह ऐसी ही हैं ऐसा कुछ कहा
किसी ने नहीं कहा कि यह अन्याय हुआ
बल्कि कहा कि बात को क्यों उधेड़ते हो
इसे दबाने में ही भलाई है।

और इधर हम लोग अपने तमाम गणित लगाकर भी
अपने नगरों और राजधानियों में बसे लोगों तक से
सलाह-सूत मिलाकर भी
चूँ तक न कर सके
तब समझ में आया कि सचमुच दबंग हैं।
और यह भी कि वे क्यों दबंग हैं?

दाह की लकड़ी

मृत्यु तो आती ही है।
उसे आना ही चाहिए
सारा जीवन उसी के स्वागत की तैयारी है।
उसी के बारे में सोचते-विचारते कटती है उम्र
पर कभी-कभी आती है जैसे वह
नहीं आना चाहिए उसे ऐसे!

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प्रभात
जन्म- १० जुलाई 1972. कविताएँ व कहानियाँ देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। २०१० में सृजनात्मक साहित्य पुरस्कार और भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार और २०१२ में युवा कविता समय सम्मान। साहित्य अकादमी से कविता संग्रह 'अपनों में नहीं रह पाने का गीत' प्रकाशित।