काव्य-संग्रह ‘मौन-सोनचिरी’ से प्रतिभा शर्मा की कविताएँ
अमृता! हम नहीं हैं तृप्ताएँ
आज फिर ‘नौ सपने’ पढ़े
जैसे एक तीर्थ कर लिया
वो अकेले हंस का
धवल पँख
अभी भी हिल रहा है
किसी कच्ची नव्या कोख में
उसकी चोंच में फँसा
वो दूधिया मोती
बनकर चाँद
उग रहा है मेरे अस्तांचल में
सब सरोवरों का जल
नहीं रहा अब पारदर्शी
वहशी आदम की
कुचैली पॉलीथीनें,
पीठ में घात वाले
दोस्ताना कोक के टिन,
किसी घरेलू हिंसा से आहत
फटे, चीरे, लीरे वाली ताँत,
ज़माने भर की रूसवाइयों के
चुभते चीढ़े तिनके
सब के सब
हर छोल के संग हिलोरते
दिखा रहे हैं आँख
सहमे क़दमों को
कहाँ ले जाऊँ
किस नदी में पाँव उतारूँ
है बचा कौन-सा जल
पावन निर्मल
किस वारिस शाह को पुकारूँ
एक चुल्लू भर यह घूँट
उतार लूँ हलक से
कर लूँ तर अधरों को
तो
हो न जाऊँगी नीली देह
निःशक्त निष्प्राण
हाँ हम नहीं हैं तृप्ताएँ
कौन-से स्वप्न से जागकर उठें
हम नहीं सो पायीं जी-भर कभी
इस पल में बदलती फ़ितरत से युग की
अबोध जननियाँ है
स्याह रातों से बढ़कर
क्रूर दिनों से सहमी हुई।
कि कहीं कोख की अजन्मी
ना चिथड़ी हो जाए
कि बग़ल में दबी,
पीठ पर बँधी कुपोषिताएँ
ना दम तोड़ दें
कि आँगन में चहकती चिड़ियाएँ
ना बहेलियों की पकड़ में आ जाएँ
नहीं सो पायीं जी-भर कभी
चौंककर उठ जाती हैं
आधी-आधी रातों को
हम जननियाँ है
वारिस शाह
क्या आदम सदैव
आदम ही रहेगा
इंसान नहीं बन पाएगा?
इत्र की शीशी
मैं ढूँढ रही हूँ
बेमौसम की बरसात में नहाए
बादलों की ओट से धूप सेंकने निकला
एक इन्द्रधनुष।
बाढ़ के सुस्त हो जाने के बाद
कहीं किसी गंदले पानी की सतह पर
सिसकते चाँद का अधूरा अक्स।
ख़ूँ जमा देने वाली सर्द रातों में
जीवन की मुसीबतों को ललकारता
किसी नुक्कड़ पर सुलगता
एक अलाव।
चारों दिशाओं-सी चारों क़ौमों को,
धरती और आकाश-सी दोनों क़ौमों को
मिलाने वाला सुनहरा
एक क्षितिज।
बारिश में भीगे धोरों का रंग
उस रंग से उठती सौंधी सुगन्ध।
मंत्रोच्चार से गूँजता कोई काशी-तट
मगहर की माटी पर खींचा कोई कबीर-पथ।
उस निर्गुणी-माटी के इत्र वाली
कॉर्क लगी एक छोटी-सी शीशी
जाने कब से ढूँढ रही हूँ मैं।
मुझे अब टूट जाने से ख़ौफ़ आता है
तुम चाहो तो मुझे गुफाओं में उकेरो
या फिर देवालयों में करो चित्रित
यूँ हाथ में तराजू थमाकर
संग-ए-मरमर मत करो
मुझे अब टूट जाने से ख़ौफ़ आता है
तुम चाहो तो कोई धूनी रमा लो
या फिर किसी नुक्कड़ पर
तपा लो कोई अलाव
यूँ शरारा-शरारा खेलकर अतिशी मत करो
मुझे इस मुल्क के जल जाने का ख़ौफ़ आता है
काँच की कचकौलियाँ
मै ज़रा मुस्कुरायी भर थी
कि मेरी अविच्छिन्न
दंतपंक्ति देखकर
बिखर गई इक बदरी
अधीर-सी कुलांचे मारती
जीत गई दौड़
अल्हड़ पवन संग।
कुछ आवारा बादलों के टुकड़ों ने
चुग ली थी किरचियाँ
मेरी खिलखिलाहटों की
जो वक़्त की
तितर-बितर ढेरियों में
गुमशुदा थीं।
कुछ धवल थी और कुछ धूसर,
कुछ झक पारदर्शी थीं
टूटी काँच की कचकौली की मानिंद।
कुछ बड़ी धार लिए हुए थीं…
छोड़ गई लाल लहू वाली खरोंचें
कच्ची कलाइयों पर
उम्र भर के लिए।
कि सूखते खरूंठ पर
बड़ी झुंझलती
वेदना उभरती है।
खुरच लो तो
फिर लाल हो उठती है।
ये स्मृतियों की लकीरें है
निशान छोड़ जाती हैं।
इन्हें हो जाने दो गुम
उन विस्मृत ढेरियों में।
कि अब नहीं बची जगहें
तंग होती मस्तिष्क तंत्रिकाओं में
उन्हें रख आने दो उस अटाले में
कि अब नहीं लेती ऊँची पींगें
संकुचित होती उम्मीदों की डालियाँ।